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________________ 34 अष्टकप्रकरणम् ( वास्तविक अर्थों में विद्या-ग्रहण ) नहीं है, उसी प्रकार अविधि से ग्रहण किये गये प्रत्याख्यान को भी अप्रत्याख्यान रूप मानना चाहिए ( क्योंकि यह मोक्षरूपी सम्यक् फल प्रदान नहीं करता है ) ॥ ४ ॥ अक्षयोपशमात्त्यागपरिणामे तथाऽसति । जिनाज्ञाभक्तिसंवेगवैकल्यादेतदप्यसत् ॥ ५ ॥ क्षयोपशम के अभाव में जिनाज्ञा में भक्ति एवं संवेग की विकलता अर्थात् अश्रद्धा होने से तत् परिणामजन्य द्रव्य-प्रत्याख्यान भी अशुभ है ॥ ५ ॥ उदग्रवीर्यविरहात् क्लिष्टकर्मोदयेन यत् । बाध्यते तदपि द्रव्यप्रत्याख्यानं प्रकीर्तितम् ॥ ६ ॥ क्लिष्ट कर्मोदय के कारण उत्कट वीर्य या तीव्र शक्ति का अभाव होने से जो प्रत्याख्यान खण्डित होता है, वह भी द्रव्य-प्रत्याख्यान है ।। ६ ।। एतद्विपर्ययाद्भावप्रत्याख्यानं जिनोदितम् । सम्यक्चारित्रारूपत्वानियमान्मुक्तिसाधनम् ॥ ७ ॥ इस द्रव्य-प्रत्याख्यान के विपरीत सम्यक्-चारित्र रूप भाव-प्रत्याख्यान अवश्य ही मोक्षसाधक है - ऐसा जिनेश्वर द्वारा उपदिष्ट है ॥ ७ ॥ जिनोक्तमिति सद्भक्त्या ग्रहणे द्रव्यतोऽप्यदः । बाध्यमानं भवेद्भावप्रत्याख्यानस्य कारणम् ॥ ८ ॥ जिनेश्वर द्वारा उपदिष्ट सद्भक्तिपूर्वक द्रव्य रूप में भी गृहीत तथा कालान्तर में खण्डित हुआ द्रव्य-प्रत्याख्यान भाव-प्रत्याख्यान का कारण है ।। ८ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001665
Book TitleAshtakprakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2000
Total Pages190
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Religion, worship, & Principle
File Size8 MB
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