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सम्भव है वृत्तिकार के समक्ष ऐसा कोई रामायण-संस्करण रहा हो जिसमें यह श्लोक सुग्रीव प्रसङ्ग में प्राप्त हुआ हो या यह भी हो सकता है कि वृत्तिकार का सूचना-स्रोत ही त्रुटिपूर्ण रहा हो।
पच्चीसवें, 'पुण्यानुबन्धिपुण्यप्रधानफलाष्टकम्' २३ में हरिभद्र महावीर के उस सङ्कल्प को उद्धृत करते हैं जिसमें महावीर ने माता-पिता के जीवन-पर्यन्त या उनके गृहवास करने तक गृहस्थवास का त्याग न करने का अभिग्रह धारण किया था -
जीवितो गृहवासेऽस्मिन् यावन्मे पितराविमौ । तावदेवाधिवत्स्यामि गृहानहमपीष्टतः ।। २५/४ ।।
इस तथ्य का प्रतिपादक एक सूत्र और गाथा क्रमश: कल्पसूत्र २४ और विशेषावश्यकभाष्य२५ में भी है, जो निम्नवत् है -
नो खलु मे कप्पइ अम्मापिऊहिं जीवंतेहिं मुंडे । भवित्ता अगाराओ अणगारिअं पव्वइत्तए ।। अह सत्तमम्मि मासे गब्भत्थो चेव अभिग्गहं गिण्हे । नाहं समणो होइ अम्मापियरम्मि जीवंते त्ति ।।
इस घटना को भलीभाँति समझने के लिए प्रसङ्ग को जानना आवश्यक है। विपक्षियों का तर्क है कि मोक्षमार्ग रूपी परम लक्ष्य की साधना करने वाले के लिए दया, दान या आत्मीयजनों के वैयावृत्य - सेवाभाव का क्या प्रयोजन है ? हरिभद्र इन आशङ्काओं को निर्मूल बताते हुए कहते हैं कि सत्कार्य और गुरुजनों के वैयावृत्य से मोक्ष और उससे भी बढ़कर तीर्थङ्करत्व का महान् फल प्राप्त होता है। इसी प्रसङ्ग में आचार्य ने महावीर द्वारा वर्तमान श्रव में गर्भकाल में अभिगृहीत माता-पिता के वैयावृत्य के सङ्कल्प को उद्धृत कर यह निरूपित किया है कि वे भव के आरम्भ से ही पुण्यानुबन्धि सत्प्रवृत्तियों में संलग्न थे।
महावीर द्वारा प्रव्रज्या के समय दिये गये दान के सम्बन्ध में बौद्धों का तर्क है कि महावीर का उक्त दान संख्य है अत: उसे महादान की संज्ञा नहीं दी जा सकती है। जैनागमों ( मूलमित्यादि ) आचाराङ्ग२६ और आवश्यकनियुक्ति२७ में स्पष्ट रूप से उल्लिखित है -
एगा हिरण कोडी अटेव अण्णया सय सहस्सा । तिण्णेव य कोडिसता अट्ठासीतिं च होंति कोडीओ । असीतिं च सतसहस्सा एतं संवच्छरे दिण्णे ।। For Private & Personal Use Only
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