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अग्निकारिकाष्टकम् कर्मेन्धनं समाश्रित्य दृढा सद्भावनाहुतिः । धर्मध्यानाग्निना कार्या दीक्षितेनाग्निकारिका ॥१॥
दीक्षित श्रमण को कर्मरूपी ईंधन ग्रहणकर, प्रबल शुभभावनारूपी आहुति और धर्मध्यानरूपी अग्नि से अग्निकारिका करनी चाहिए ।। १ ।
दीक्षा मोक्षार्थमाख्याता ज्ञानध्यानफलं च स । शास्त्र उक्तो यतः सूत्रं शिवधर्मोत्तरे ह्यदः ॥ २ ॥
दीक्षा का उद्देश्य मोक्ष है और आगम में मोक्ष को ज्ञान और ध्यान का फल कहा गया है। इस सम्बन्ध में शिवधर्मोत्तरपुराण में निम्न श्लोक कहा गया है - ॥ २ ॥
पूजया विपुलं राज्यमग्निकार्येण सम्पदः । तपः पापविशुद्ध्यर्थं ज्ञानं ध्यानं च मुक्तिदम् ॥ ३ ॥
पूजा से विशाल राज्य और अग्निकार्य ( यज्ञ ) से समृद्धियाँ प्राप्त होती हैं। तप, पाप-विशुद्धि के लिए होता है और ज्ञान तथा ध्यान मोक्ष प्रदान करने वाला है ॥ ३ ॥
पापं च राज्यसम्पत्सु सम्भवत्यनघं ततः । न तद्धत्वोरुपादानमिति सम्यग्विचिन्त्यताम् ॥४॥
राज्य और सम्पत्तियों के उपार्जन एवं भोग में पाप होता है, इस कारण उनका आश्रय निरवद्य या निष्पाप नहीं है, इस तथ्य का सम्यक् प्रकार से चिन्तन करना चाहिए ।। ४ ।।
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