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[ xx ] वही दृष्टान्त अमृतचन्द्रसूरि (९-१० शताब्दी ) कृत पुरुषार्थसिद्ध्युपाय१९ के निम्न श्लोक में भी उपलब्ध है -
हिंस्यन्ते तिलनाल्यां तप्तायसि विनिहिते तिला यद्वत् । बहवो जीवा योनौ हिंस्यन्ते मैथुने तद्वत् ।।
'सूक्ष्मबुद्ध्याश्रयणाष्टकम्' में भी हरिभद्र निरूपित करते हैं कि प्रतिज्ञा या अभिग्रह अङ्गीकार करते समय उसके भाव या यथार्थ का सम्यक् परीक्षण अनिवार्य है। परीक्षण के अभाव में परहित-कामना दूसरों के अहित की कामना में परिणत हो सकती है। इस अभिप्राय को स्पष्ट करने के लिए हरिभद्र ने एक दृष्टान्त दिया है, जिसके अनुसार एक श्रमण यह अभिग्रह धारण करता है कि वह किसी रुग्ण को औषध दान करेगा। इस अभिग्रह का निहितार्थ यह है कि इसे पूर्ण होने के लिए किसी का रुग्ण होना अनिवार्य है। किसी के रुग्ण होने की कामना, किसी भी स्थिति में वाञ्छनीय नहीं है। हरिभद्र किसी भी सङ्कल्पित कृत्य या इच्छा के निहितार्थ का उचित-अनुचित विवेक भली प्रकार से करने का उपदेश देते हैं। अपने तर्क के समर्थन में वे रामायण२१ से एक प्रसङ्ग उद्धृत करते हैं, जिसमें राम कामना करते हैं कि राम पर किये गये उपकारों का प्रतिदान करने की उनकी भावना उनके अङ्गों में ही वृद्धावस्था को प्राप्त कर ले, क्योंकि उपकारी, उपकृत के प्रत्युपकार का फल तभी प्राप्त कर सकता है जब वह स्वयं ( उपकारी) विपत्ति में पड़े। इस प्रकार उपकृत द्वारा उपकारी का उपकार करने की भावना वस्तुत: उपकारी के अहित-चिन्तन में परिवर्तित हो जाती है, जो सम्यक नहीं है। अष्टकप्रकरण में उद्धृत और रामायण ( उत्तरकाण्ड ) में प्राप्त यह श्लोक निम्नवत् है -
अङ्गेष्वेव जरां यातु यत्त्वयोपकृतं मम । नरः प्रत्युपकाराय विपत्सु लभते फलम् ।। अङ्गेष्वेव जरा यातु यत्त्वयोपकृतं कपे । नरः प्रत्युपकाराणामापत्सु लभते फलम् ।।
उल्लेखनीय है कि प्रस्तुत श्लोक रामायण के प्राय: सभी संस्करणों में अनुपलब्ध है। मात्र ‘कुम्भकर्णसंस्करण' में ही उपलब्ध है।
इस श्लोक का प्रसङ्ग भी रामायण और जिनेश्वरसूरि विरचित 'अष्टकप्रकरणवृत्ति' २२ में भिन्न-भिन्न है। रामायण ( कुम्भकर्ण संस्करण ) में यह श्लोक हनुमान के प्रति राम के उद्गार का प्ररूपक है, जबकि 'अष्टकप्रकरणवृत्ति' में तारा को प्राप्त करने में राम की सहायता के उपलक्ष्य में सुग्रीव यह उद्गार व्यक्त करते हैं ।
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