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आप्तवाणी-१
आप्तवाणी श्रेणी - १
धर्म का स्वरूप धर्म अर्थात् क्या? वस्तु स्वगुणधर्म में परिणमित हो, वह धर्म। धर्म यानी वस्तु का स्वभाव और वही उसका धर्म कहलाता है।
उदाहरण के रूप में, सोना, सोना कब कहलाता है? जब उसके गुणधर्म सोने के दिखाई दें, तब। अंगर यदि कडवे लगें. तो क्या कहेंगे? अंगूर उसके गुणधर्म में नहीं है। पीतल को यदि बफिंग करके रखा हो, तो वह हूबहू सोने जैसा ही लगता है, पर सनार के पास ले जाकर परख करवाएँ, तब पता चलता है कि उसमें सोने के गुणधर्म नहीं हैं, इसलिए सोना नहीं हो सकता।
दो प्रकार के आम आपके सामने रखे हैं। उनमें से एक में से आम की खुशबू आती है, सूख जाने पर थोड़ी-सी सलवट पड़ती हैं, थोड़ी सड़न पैदा होती है और दूसरा आम भी हबह आम जैसा ही दिखता हो पर वह लकड़ी का हो, तो और सबकुछ होता है, पर सुगंध नहीं होती, कुम्हलाता नहीं, सड़ता भी नहीं। दोनों ही आम हैं, पर लकड़ी का आम केवल कहने को आम है। वह सच्चे आम के स्वभाव में नहीं है। जब कि सच्चा आम अपने स्वभाव में है, गणधर्म में है। वैसे ही वस्तु जब अपने स्वभाव में होती है, गुणधर्म में होती है, तभी वह वस्तु कहलाती
है। वह वस्तु अपने धर्म में है ऐसा कहलाता है। अनात्मा को, पुद्गल को, 'मैं' मानने में आता है, वह अवस्तु है, परधर्म है, स्वधर्म नहीं है। आत्मा को आत्मा माना जाए, तो वह वस्तु है, वही धर्म है, स्वधर्म है, आत्मधर्म है।
दादाश्री : आप कौन हैं? प्रश्नकर्ता : मैं चंदूलाल हूँ। दादाश्री: आपका नाम क्या है? प्रश्नकर्ता : मेरा नाम चंदूलाल है।
दादाश्री : 'मैं चंदूलाल' और 'मेरा नाम चंदूलाल', दोनों में कोई विरोधाभास लगता है क्या? नामधारी और नाम दोनों एक कैसे हो सकते हैं? नाम तो, जब अरथी उठती है, तब वापिस ले लिया जाता है। म्युनिसिपालिटी के रजिस्टर में से निकाल देते हैं।
यह हाथ किस का है? यह पैर किस का है? प्रश्नकर्ता : मेरा है।
दादाश्री : वे तो इस शरीर के स्पेयर पार्ट्स हैं। उसमें तेरा क्या है? तेरे भीतर जो मन है, वह किस का है?
प्रश्नकर्ता : मेरा है। दादाश्री : यह वाणी किस की है? प्रश्नकर्ता : मेरी है। दादाश्री : यह देह किस की है? प्रश्नकर्ता : मेरी है।
दादाश्री : 'मेरी है', कहते ही उसका मालिक उससे अलग है, ऐसा विचार आता है कि नहीं आता?