Book Title: Anekant 1995 Book 48 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 15
________________ अनेकान्त/१० ___ इसके उपरांत पं० बलभद्र जी ने “रयणसार' का संपादन किया जो सन् १९७९ में जयपुर से छपा । उसके आभार प्रदर्शन में पंडित जी ने लिखा है -“पूज्य महाराज श्री (विद्यानन्दजी) का सदा मुझे आशीर्वाद और विश्वास प्राप्त रहा है । इस ग्रन्थ की मार्गदिशा मुझे आपसे ही प्राप्त हुई है | आपने इसे आद्योपान्त देखकर आवश्यक संशोधन आदि के निर्देश भी दिये।" पं० बलभद्र जी (जो अब कुन्दकुन्द भारती के अधिष्ठाता और वहां से प्रकाशित ग्रन्थो के संपादक है ।) ने उक्त ग्रन्थ के पुरोवाक् में लिखा है कि "कुन्दकुन्द साहित्य की भाषा अत्यंत भ्रष्ट और अशुद्ध है। यह वाक्य केवल रयणसार के मुद्रित संस्करणों के ही सम्बन्ध में नहीं कुन्दकुन्द के सभी प्रकाशित ग्रन्थों के बारे में है।" उक्तपक्तियों को पढ़कर हमे ऐसा लगा कि डा० देवेन्द्रकुमार जी भी शायद कहीं स्खलित हुए हो । फलत हमने दोनो प्रतियो का मिलान किया । हमें दोनो मे परस्पर पर्याप्त अन्तर मिला । हम सोचते रहे कि कुदकुंद भारती का प्रकाशन अशुद्ध कैसे हो सकता है ? फिर वह डा० देवेन्द्रकुमार द्वारा संपादित भी तो है और देवेन्द्रकुमार जी प्राकृत निष्णात है | बाद में हम जान पाये कि यह भाषा का अन्तर है । डा० देवेन्द्रकुमार के संपादन तक भाषा मे एकरूपता नही थी, पूर्ववत् स्थिति थी और वलभद्र जी के सपादन में वह भाषा शौरसेनी का रूप धारण कर चुकी कही जा रही है । फलतः ग्रन्थ के दो रूप हमारे सामने आए और हम निश्चय न कर पाये कि दोनों के संपादनो मे किसका रूप प्राचीन आगमो की भाषा से सम्मत है क्योकि दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदाय अंगपूर्वो की अर्धमागधी भाषा से सहमत रहे है और जैन आगमों के लिए वही प्राचीन है। शौरसेनी आदि भेद तो पश्चाद्वर्ती वैयाकरणो द्वारा प्रकट किये गये है और वे भाषाएं सार्वभौमिक नहीं, अपितु क्षेत्रीय भाषाएं है। अभी तक भी उन क्षेत्रीय भाषाओं के एकाकी सार्वजनिक ग्रंथ कहीं सुनने व देखने मे नही आये और न किसी तीर्थकर या गणधर के ही किसी एक भाषा में बंधकर बोलने का उल्लेख आया । सभी की अर्धमागधी भाषा रही और देवकृत अतिशय भी अर्धमागधी भाषा है । (जिसे दिगम्बरों में शौरसेनी बहुल ( मिली जूली ) के कारण जैन शौरसेनी कहा गया ) यदि ऐसे मे भी शौरसेनी आदि मे से मात्र क्षेत्रीय किसी एक भाषा को दिगम्बर आगमों की भाषा घोषित कर दिया जाय तो क्या दिगम्बर आगमो और दिगम्बरो की प्राचीनता को सिद्ध किया जा सकेगा, चिन्तनीय है ? स्मरण रहे कि परम्परित आचार्य भी उसी भाषा (जैन-शौरसेनी) का अनुसरण करते रहे है और इसी से उनके वचनो को प्रामाणिकता मिली है ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125