Book Title: Anekant 1995 Book 48 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 104
________________ अनेकान्त / 14 सक्षेप में कहा जा सकता है कि जैन धर्म ने जीने की कला सिखाई है । सयमी श्रावक अपने जीवन (आत्मिक) शक्ति का विकास करता हुआ परमात्म पद प्राप्त कर सकता है। हमारे अनेक निर्मोही एवं उत्कृष्ट संयमधारी मुनि हमारे पथ प्रदर्शक है एवं आदर्श भूत है। जैन धर्म मे शिथिलाचार का कोई स्थान नही है। यही कारण है कि समन्तभद्र जैसे आचार्य को कहना पडा है कि मोही मुनि अपने पद से च्युत हो जाता है। अत: आज श्रावको का उत्तरदायित्व अधिकतर बढ गया है। उसे श्रावक धर्म का पालन भी करना हे ओर श्रमणो की वैयावृत्त्य आदि करते हुए ऐसा प्रयास करना है कि वे किसी प्रकार से मोही न हो सके। सहायक ग्रन्थ- संदर्भ सूची 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 यशस्तिलक 6/2 (i) वही 1/15-16 (ii) प मेधावि धर्मसंग्रह श्रावकाचर 1 / 4-5 चारितं खलु धम्मों जो सो समोत्ति णिदिट्ठो मोहक्खोह विहीणों परिणामो अप्पणों हुसमो । प्रवचनसार 1/7 पूज्यपादाचार्य सर्वार्थ सिद्धि 9/18 पृ - 333 (क) प्रश्नोत्तर श्रावकाचार 1 / 22, (ख) स्वामी का गा 304 (ग) रत्न करण्ड श्रावकाचार 3/4 | यो यतिधर्ममकथयन्नुपदिशति गृहस्थ धर्ममल्पमति । तस्य भगवत्प्रवचने प्रदर्शितं निग्रहस्थानम् ।। अमृतचन्द्राचार्य पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, 118 द्रष्टव्य मध्य सिद्धान्त कौमुदी सूत्र, 550 श्रृणोति जिनोदितं तत्वमिति श्रावकः । शुभचन्द्रः कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका, गाथा 330 पृ 236 श्रावक प्रज्ञप्ति गाथा-2 15 16 श्रणोति गुर्वादिम्यों धर्ममिति श्रावकः । 1 / 15, पृ0 141 17 वसुनन्दि श्रावकाचार, पृ-20 पर उद्धृत । 18 7/19 पृ 269, गाथा 29 12 मनुस्मृति 6187 पदमप्रभ मल्लिधारी देव नियमसार, तात्पर्यवृत्ति, गाथा 139/ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग 2, पृ 344 | 13. 14 * पंचास्तिकाय गाथा । (i) प. का तात्पर्य वृत्ति टीका, पृ-41 (ii) प्र सा तात्पर्यवृत्ति 3/6 चतुर्गतिमहावर्ते संसार क्षार सागर । मनुष्यं दुर्लभविद्धि गुणोपेतं शरीरिणाम ।। आ सकलकीर्ति प्रश्नोत्तर श्रावकाचार 1/14

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