Book Title: Anekant 1995 Book 48 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 107
________________ अनेकान्त/17 सपादक बनने का हमे अधिकार नही। सपादन करना अनधिकार चेष्टा तो होगी ही और साथ मे पूर्वाचार्यो की अवहेलना भी। यत- न तो हमे आगमकर्ता ने अधिकृत किया और न ही हममे उनसे अधिक योग्यता ही। फिर पाठ-भेदों की उपलब्धि मे आचार्य के मूलशब्द रूपो को भी हम कैसे ग्रहण कर सकेगे? हम तो आगम मे जहाँ जैसा जो पाठ है (अर्थ भेद के अभाव में) उसे ही प्रमाण मानते रहे हैं और विवादित स्थलों पर 'आगम में शंका न धार' का अनुसरण करते रहे चूकि उक्त आगम, प्राकृत भाषा बद्ध है अतः हम सपादक और सपादन की परिभाषा (अर्थ) के विषय में प्राकृत कोषो को ही प्रमाण रूप में उपस्थित करते है। तथाहि(1) संपाडग (संपादक) कर्ता, निर्माता। संपाडण (संपादन) निष्पादन, करण, निर्माण। --पाइअ सद्दमहण्णव (कोष)। (2) संपाडग (संपादक) कर्ता, निर्माता, Author, Makers संपाडण (संपादन) निष्पादन, Producing, causing, करण, निर्माण, Formation, Creating. -अर्धमागधी कोष उक्त प्रसंगों से पाठक निर्णय करें कि उक्त आगम के मूलकर्ता आचार्य कुन्दकुन्द संपादक हैं या वर्तमान में उछल-कूद करने वाले हम ऐरे-गैरे चन्द लोग? हम इसका निर्णय विचारकों पर छोडते हैं। हाँ, हमारी दृष्टि स्पष्ट है कि हम किसी भी भॉति संपादक बनने के लिए तैयार नहीं। नई ही घटना है कि कुछ दिन पूर्व एक पत्रकार ने हमारे कार्यों पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए अपनी पत्रिका में छाप दिया-- " परमसाधुवृत्ति श्रावक, पं. पद्मचन्द्र जी शास्त्री को अपनी हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ। बस, क्या था कुछ लोगो ने हमे टोकना शुरु कर दिया वे बोले - आप तो अच्छे खासे घूम फिर रहे है- जीवित और स्वस्थ है और हमने पत्रिकामे आपको श्रद्धांजलि अर्पित (जो मृत्यु के बाद अर्पित होती है) होने के समाचार पढे है। हमने कहा- श्रद्धांजलि का अर्थ श्रद्धापूर्वक हाथ जोडना है और यह श्रेष्ठ शब्द है। पर, जलांजली शब्द के अनुरूप इसे मरण से जोड लिया गया मालूम होता है। लोक मे मृत्यु के बाद जल-अजली (पानी) देने का प्रचलन प्रसिद्ध है ही। संभव है ऐसा ही प्रसंग संपादक और सपादन के प्रचलन में हुआ हो और कालान्तर मे किसी अन्य की कृति को छापने के योग्य बनाने को संपादन तथा छापने योग्य बनाने वाले को सपादक नाम से सबोधित किया जाने लगा हो। पर इससे संपादक और संपादन के कोष-सम्मत अर्थो मे तो अन्तर नहीं पडतामूलकर्ता सम्पादक होता है और सम्पादन भी उसी का, किसी अन्यका नहीं। ऐसे मे कुन्दकुन्दादि की मूल कृतियों के संपादक बनने जैसी धृष्टता हम क्यों करें?

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