Book Title: Anekant 1995 Book 48 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 124
________________ अनेकान्त/34 "यथा नागपदे 5 न्यानि पदानि पदगामिनाम्। सर्वाण्येवापि धार्यन्ते पदजातानि कौजरे ।। एवं सर्व माहिंसायां धर्मार्थमपि धीयते । अमृतः स नित्यं वसति योऽहिंसा प्रतिपद्यते।।" -महाभारत, 12/237/18-19 वैदिक परम्परा के न्यायादि दर्शनों में वैदिक हिंसा को वेदानिषिद्धत्व उपाधि न होने के कारण अहिंसा ही माना गया है। किन्तु जैन दर्शन के समान सांख्यदर्शन को भी यह बात स्वीकार्य नहीं हैं। जैन दर्शन में हिंसा को विकार का पर्यायवाची माना गया है। क्रोध करना, मारना, गाली देना, अपमान करना, झूठा लाञ्छन लगाना. असन्मार्ग के साधन जटाना आदि विकार के बाह्य रूप हैं तथा रागादि रूप परिणति उसका आन्तरिक रूप है। बाह्य रूपों से द्रव्य प्राणों का और आन्तरिक रूप में भाव प्राणों का व्यपरोपण होने से हिंसा है। अमृतचन्द्र आचार्य ने अहिंसा और भाव हिंसा का उत्कृष्ट स्वरूप एक श्लोक में प्रस्तुत करते हुए लिखा है "अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति। तेषामेयोत्पति हिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः।।' अर्थात् आत्मा में रागादि भावों की उत्पत्ति हिंसा है और आत्मा में रागादि भावों की उत्पत्ति नहीं होना ही अहिंसा है- यहीं जिनागम का सार है। योगदर्शन में अद्रोह को अहिंसा कहना रागादि भावों की अनुपत्पत्ति ही है। योगदर्शन का यह कथन जैनदर्शन से पूर्णतया प्रभावित है। योगदर्शन में स्वीकृत विविध हिंसा-लोभजन्य हिंसा, क्रोधजन्य हिंसा एवं बलिदानजन्य हिंसा में द्रव्य हिंसा एवं भाव हिंसा दोनों को गर्भित कर लिया गया है। सन्दर्भ 1. सांख्यकारिका 2 2. भारतीय दर्शन (1976 संस्करण) पृ. 810 3. योगसूत्र 2/34 का व्यास भाष्य 4. योगसूत्र 2/30 का व्यास भाष्य 5. योगसूत्र 2/30 का व्यास भाष्य 6. योगसूत्र 2/30 का व्यास भाष्य 7. गुणरत्नकृत षड्दर्शन समुच्चय वृत्ति पृ. 16 8. अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्संनिधो बैर त्यागः योगसूत्र 2/35 9. महाभारत 12/237!18-19 10. महाभारत अनुशासनपर्व 115/23 एवं 116/28-29 11. तत्वार्थसूत्र 7/13 12. तत्वार्थसूत्र 7/3 13. पुरुषार्थ सिद्धि उपाय श्लोक 44

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