Book Title: Anekant 1995 Book 48 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 123
________________ अनेकान्त / 33 कष्टं तमः प्राप्नुयात् । तस्मात्परीक्ष्य सर्वभूतहिंत सत्यं ब्रूयात् । " स्पष्ट है कि अहिंसा को सत्य से भी बढ़कर अधिक महत्व देना सांख्य योग दार्शनिकों के आचार की आधार शिला है। अतः उनकी दृष्टि में प्राणियों की प्रत्येक क्रिया अहिंसामूलक होना चाहिए । अहिंसा की प्रतिष्ठा हो जाने पर योगियों के निकट नैसर्गिक विरोधी प्राणियों का भी बैर निवृत्त हो जाता है अर्थात् जिस योगी को सर्वथा एवं सर्वदा हिंसाविरति एवं अहिंसानिष्ठा हो जाती है, उसके पास में स्वाभाविक विरोधी अहि-नुकुल, मृग-सिह, मूषक - मार्जार आदि प्राणी मित्रता को प्राप्त हो जाते हैं। सांख्य-योग की स्पष्ट अवधारणा है कि अहिंसा की मंजिल को पूरी किये बिना साधना एवं विचारणा में गति और प्रगति असंभव है । सांख्य-योग दर्शन के प्रतिपादक महाभारत में महर्षि वेदव्यास ने अहिंसा के सर्वातिशायी महत्व का प्रतिपादन करते हुए कहा है कि जिस प्रकार हाथी के पैर में सब प्राणियों के पैर समा जाते हैं, उसी प्रकार अहिंसा में सब धर्मों के तत्त्व समा जाते हैं। ऐसा जानकार जो अहिंसा का परिपालन करते हैं, वे अमर होकर शाश्वत मोक्ष मे निवास करते है। उनकी दृष्टि मे अहिसा परम धर्म, परम तप, परम सत्य, परम संयम, परम दान, परम यज्ञ, परम फल, परम मित्र और परम सुख है "अहिंसा परमो धर्मस्तथा ऽ हिंसा परं तपः । अहिंसा परमं सत्यं यतो धर्मः प्रवर्तते । । अहिंसा परमो धर्मस्तथा ऽ हिंसा परो दमः । अहिंसा परमं दानमहिंसा परमं तपः । । अहिंसा परमो यज्ञस्तथा ऽ हिंसा परं फलम। अहिंसा परमं मित्रमहिंसा परमं सुखम् ।।" जैन दर्शन में अहिंसा का परिगणन पाँच व्रतों में सर्वप्रथम किया गया है। सत्यादिक शेष चार व्रतों को अहिंसाव्रत की वाड़ स्वीकार किया है। अहिंसा को अच्छी तरह पाल लेने पर सत्यादिक सभी व्रत पल जाते हैं। अतः मूल तो अहिंसा व्रत ही है। अहिंसा का पालक सभी व्रतों का पालक होता है। हिंसा का स्वरूप बताते हुए गृच्छपिच्छार्य उमास्वामी ने कहा है 'प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा । ' 11 अर्थात् प्रमाद के योग से प्राणों का व्यपरोपण हिंसा है। जैनदर्शन की हिंसा की यह परिभाषा ही योगदर्शन में कहीं गई मन-वचन-काय से प्राणी को पीड़ा पहुँचाने रूप हिंसा में देखी जा सकती है। योगसूत्र में प्रयुक्त कृत, कारित और अमुनत शब्द भी जैन दर्शन से लिए गए है। सम्पूर्ण वैदिक परम्परा में इनका अन्यत्र कहीं प्रयोग नहीं है। योगदर्शन के व्यास भाष्य में की गई सत्य की अहिंसामूलक परिभाषा जैन दर्शन में प्रतिपादित सत्यव्रत की पाँच भावनाओं 12 के समावेश के साथ की गई है - •

Loading...

Page Navigation
1 ... 121 122 123 124 125