________________
अनेकान्त/२७
अनादि मोह ग्रन्थि के क्षय का उपाय
____-डा० राजेन्द्र कुमार बंसल
अमलाई (म०प्र०) ४८४११७ आत्मा, वस्तु-स्वरूप एवं विश्व के विराट स्वरूप को देखने हेतु विराट नेत्रो की आवश्यकता होती है । विराट नेत्र क्या है और कैसे उनसे देखा जा सकता है । भगवान महावीर कहते है - वस्तु स्वरूप के समस्त अंशो को जानने वाला प्रमाण ज्ञान ही विराटनेत्र है । इस प्रमाण - ज्ञान कं एक अश का ग्रहण या कथन किया जाता है तव वह नय दृष्टि कहलाती है । जो व्यक्ति विशाल हृदय से अनाग्रही होकर विविध नयों या दृष्टिकोणों से वस्तु स्वरूप को देखता है, वही विराट सत्य का दर्शन कर पाता है । स्व-समय एवं पर-समय
"जितने वचन मार्ग है उतने ही नय वाद है और जितने नय वाद है उसमे ही पर समय होते है (धवल १-१-९ गाथार्थ १०५, पृष्ठ १६३)।" अध्यात्म ग्रन्थो में पर-समय
और स्व-समय का प्रयोग हुआ है । अपने ज्ञायक स्वभाव से भिन्न क्रोधादि मनोविकारों तथा पर वस्तुओं को अपना मानकर इष्ट-अनिष्ट भाव से उ.में अपना ज्ञान-दर्शनात्मक उपयोग लगाना पर-समय है । इसी प्रकार वस्तु स्वरूप को यथार्थ ग्रहण कर उसके किसी एक विशेष पक्ष या नय को सर्वथा सत्य मान लेना पर-समय है । अपने ज्ञाता और साक्षी स्वभाव-रूप ज्ञाता-दृष्टा भाव पर अपना उपयोग लगाना तथा अनाग्रही बनकर अनेकान्त रूप से विराट बोध करना स्व-समय है । जो व्यक्ति पदार्थो के स्वरूप को यथावत् ग्रहण करता हुआ, किसी पक्ष विशेष का अनाग्रही होकर नयातीत-विकल्पातीत स्थिति मे ज्ञायकज्ञायक, होने रूप मात्र ज्ञायक हो जाये" तभी आत्मानुभूति या स्वानुभूति होती है । यह स्व-समय कहलाता है । इसमें ज्ञायक ज्ञान -ज्ञप्ति सभी एकाकार हो जाते है । इस बिन्दु से ही जीवन मे धर्म का प्रारम्भ होता है जो व्यक्ति पक्ष विशेष से वन्ध जाते है या वस्तु को अन्यथा ग्रहण करते है, वे संसार में ही भटकते रहते है, यह पर-समय है । पर-समय एकान्तिक, मिथ्या. दुःख का कारण, दुख और अधर्म स्वरूप है | स्व-समय अनेकान्न रूप सम्यक, सुख- का कारण सुख और धर्म स्वरूप है । संसार मार्ग और मोक्ष मार्ग
संसारी जीव पगवलम्वन या परतन्त्रता के कारण दु.खी है । यह परावलम्बन अपने आत्म स्वरूप के प्रति अचि, अज्ञान एवं राग-द्वेष रूप परिणति के कारण हुआ है । इसे