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श्रावक का स्वरूप : प्रदूषण विहीन समाज की संरचना
ले आचार्या श्रीमती जैनमती जैन एम ए 'भावक'शब्द 'श्रमण' शब्द की तरह जैन सस्कृति और जैनागमो की मौलिक निधि है। 'मनुस्मृति' आदि मे 'गृहस्थ' शब्द जिस अर्थ में प्रयुक्त हुआ है उसी अर्थ मे जैन आचार्यों ने श्रावक शब्द का प्रयोग किया है। श्रावक के क्रमिक विकास का अवसान परमात्मा की प्राप्ति मे होता है। श्रावक समाज की इकाई है । अत: स्वस्थ समाज का निर्माण उसके आचरण पर निर्भर है। ___ जैन धर्म जैन ओर जैनधर्म के सम्बन्ध मे भी प्रसग वशात् चिन्तन आवश्यक है। 'जैन' शब्द उस समुदाय के लिए प्रयुक्त होता है जो 'जिन' को अपना पूज्य मानते है। दूसरे शब्दो में 'जिनदेव' की उपासना करने वाले जैन कहलाते है ।2 कहा भी है
___ "जिनस्य सम्बन्धीदं जिनेन प्रोक्तं वा जैनम3।" उपर्युक्त कथन का निहितार्थ यह है कि जैन किसी जाति या सम्प्रदाय विशेष के व्यक्ति नही होते है, बल्कि वे सभी प्राणी जैन कहलाते है जो 'जिन को अपना अभीष्ट मानकर उनके द्वारा प्रदर्शित मार्ग का अनुकरण करते है।
अब प्रश्न होता है कि 'जिन' किसे कहते है? 'जिन' शब्द 'जय' या जीतने' अर्थ वाली धातु से बना है। हलायुध्र कोश मे बतलाया गया है कि 'जि' धातु मे इण विअजीति' इस सूत्र से नक प्रत्यय जोडने पर जिन शब्द बना है। अत जयतीति जिन' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जीतने वाला जिन कहलाता है। लेकिन भौतिक पदार्थो को जीतने वाला या लडाई मे अपने शत्रुओ को जीतने वालाजिन नही कहलाता है तब किसे जीतने वाला जिन कहलाता है? इस सबध में सर्व प्रथम आचार्य कुन्द-कुन्द ने विचार किया हैं वे कहते हैं 'णमो जिणाण जिद भवाण"4 अर्थात भव को जीतने वाला जिन कहलाता है। तात्पर्य यह है कि जिन कारणो से संसार मे आवागमन होता है, उन कारणों को जीतना जिन है। ज्ञानावरणादि घातिया कर्मो के वशीभूत होकर आत्मा को ससाररूपी जगल, में भटकना पड़ता है। अत टीकाकारो ने क्रोध, मान, माया, लोभ रुपी कषायों और कर्म रुपी शत्रुओं को जीतने वाले को जि.5 कहा है। अत राग-द्वेष से रहित और अनन्तज्ञानादि चतुष्टय से युक्त आप्त जिनदेव या सर्वज्ञ का उपदेश जैन धर्म कहलाता है। गम्भीरता