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अनेकान्त/7 (iii) अणुव्रती : हिसा, चोरी, असत्य, कुशील (अब्रह्मचारी) और परिग्रह इन पाँचो पापों का त्याग कर शुभ कार्यों को करना व्रत कहलाता है। अत अहिसा, अचौर्य, सत्य, ब्रह्मचर्य ओर अपरिग्रह ये पाँच व्रत कहलाते है। इनका अंश रुप से पालन करना अणुव्रती कहलाता है। अणुव्रती को देश संयमी, देश विरत भी कहते है।
(4) संयतासंयत : जो स्थूल त्रसजीवो की हिसादि का त्यागी होने से सयत हे और सूक्ष्म स्थावर की हिसा का त्याग न करने के कारण असयत है, उसे सयतासयत कहते हैं22 भट्ट अकलक देव ने कहा भी है ।24
क्षायोपशमिक विरत और अविरत परिणाम संयतासंयत कहलाता है। अथवा अनात्यन्तिकी (अपूर्ण) विरक्तता सयमासयम है। तात्पर्य यह है कि जो सयत भी है और असयत भी है, उसे सयतासयत कहते है। इसे पंचम गुणस्थानवर्ती भी कहा जाता है।
(5) पंचम गुणस्थान वर्ती : इस दृष्टि से श्रावक पंचम गुण स्थान वर्ती होता है। क्यो कि यहा अप्रत्याख्यानावरण कपाय तो नही होती, लेकिन प्रत्याख्यानावरण के होने से पूर्ण संयत नहीं होता है। चतुर्थ गुणस्थान वर्ती जीव पाक्षिक श्रावक कहला सकता है किन्तु इस जीव के विल्कुल भी संयम नहीं पाया जाता है। वह स्थावर और त्रस जीवों की हिसा से विरत नहीं होता है25 इसलिए वह नैष्ठिक श्रावक नहीं कहलाता है पंचम गुणस्थानवर्ती को श्रावक कहने का दूसरा कारण यह है कि वह स्थावर की हिसा तो करता है, किन्तु त्रस की हिसा नही करता
है।
(र) श्रावक के गुण
प आशा धर (26) जी ने श्रावक के उन गुणो का उल्लेख किया है, जिनको देखकर उसे वास्तविक सागार या श्रावक माना जा सकता है।ये गुण निम्नाकित
1 न्यायपूर्वक धन कमाना। 2 गुण-गुरुओ की पूजा करना। 3 सद्गी (प्रशस्त वचन बोलना)। 4 निर्वाध त्रि वर्ग सेवन ।
तदर्ह (गृहिणी-स्थानालय)। 6 हृीमय (लज्जाशील)। 7 योग्य आहार-विहार। 8 आर्य समिति (सत्सगतिवाला)। 9 प्राज्ञ-(विवेकवान)। 10 कृतज्ञ 11 वशी (जितेन्दिय)।