Book Title: Anekant 1995 Book 48 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 101
________________ अनेकान्त/11 (आ) पच परमेष्ठियो का आराधक होता है। (औ) चार प्रकार के दान देता और पाच प्रकार की पूजा करता है। (अं) हिंसादि पांच पापों का त्यागी होता है। (अ) सम्यक्त्व का धारक होता है। (क) अत काल मे सल्लेखना करता है। (ख) पर पदार्थो और आत्म स्वरुप जानने के लिए भेद विज्ञान को जानने का इच्छुक होता है। पद्मनन्दि35 ने उपर्युक्त सभी महत्वपूर्ण वातो का उल्लेख करते हुए कहा है कि “गृहस्थ अवस्था मे जिनेन्द्रदेव की आराधना की जाती है, निर्ग्रन्थ में विनय, धर्मात्मा मे प्रीति एवं वात्सल्य, पात्रो को दान, विपत्तिग्रस्त के प्रति दया, बुद्धि से दान तत्वो का अभ्यास व्रतो एवं गृहस्थ धर्म से प्रेम किया जाता है, निर्मल सम्यग्दर्शन धारण किया जाता है. ऐसी गृहस्थ अवस्था विद्वानो के लिए पूज्य है। इससे भिन्न अवस्था दुख रुप है। श्रावक की प्रतिमाओं को ग्रहण करने के पहले जुआ आदि व्यसनो का त्याग स्मणीय है।" उपर्युक्त कथन से सिद्ध होता है कि सात व्यसनो का त्याग करना श्रावक के लिए आवश्यक है। दूसरी बात यह है कि आठ मूल गुणो का पालन करना भी आवश्यक है। क्योंकि सात व्यसनों का त्याग और आठ मूल गुणो का पालन किये बिना श्रावक नहीं कहा जा सकता है। प राजमल्ल ने पचाध्यायी मे कहा भी है36 "ये आठ मूल गुण स्वभाव से या कुल परम्परा से पलते हुए आ रहे है। इनके बिना न व्रत होते है और न सम्यक्त्व ही होता है। इन मूल गुणो के विना जीव नाम मात्र से भी श्रावक नहीं होता है फिर पाक्षिक आदि कैसे हो सकता है? इसी प्रकार गृहस्थो को यथा शक्ति व्यसनो का त्याग करना चाहिए। पं आशाधर37 ने भी कहा है "जिनेन्द्र देव की आज्ञा मे श्रद्धा रखते हुए हिसा का त्याग करने के लिए मद्य,मास मधु और पाच क्षीरी फल त्याग इन मूल गुणो को धारण करना चाहिए। यहा सात व्यसनो और आठ मूलगुणों का विवेचन अपेक्षित नही है। (ब) श्रावक के छः आवश्यक कर्त्तव्य जैन वाड मय में श्रावक के कतिपय अनिवार्य कर्त्तव्यो का उल्लेख हुआ है। यशस्तिलक चम्पू38 में सोमद व सूरि ने देवपूजा, गुरु पूजा, स्वाध्याय, सयम, तप ओर दान ये छ आवश्यक कर्म या कर्त्तव्य बताएं है । श्रावको को ये छ काम प्रतिदिन करना चाहिए। पद्मनन्दि39 ने कहा भी है देवपूजा गुरुपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः । दानं चेति गृहस्थानां षट कर्माणिदिनेदिने।। सक्षेप में कहा गया है कि जिस प्रकार ध्यान और अध्ययन श्रमण के प्रमुख कर्तव्य है। इनको किये विना मुनि वास्तव मे मुनि नहीं कहलाता है। उसी प्रकार

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