Book Title: Anekant 1995 Book 48 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 99
________________ अनेकान्त / 9 4. आचार्य जिनसेन : इन्होने अपने महापुराण मे यद्यपि श्रावक की कोई परिभाषा नही दी है, लेकिन सागार के परीक्षण के क्रम मे वहाँ कहा गया है कि मनुष्य अणुव्रतो का धारक धीर और वीर एवं गृहस्थों में प्रधान है। वे ही धनवान आदि से सम्माननीय है चक्रवर्ती भरत ने गीले हरे घास अकुरो पुष्पों और फलो से व्याप्त भवनागन से जो लोग अदर आए उन्हें भगा दिया और जो दयालु तथा पाप भीरु लोग उस रास्ते को छोडकर दूसरे रास्ते से आए उनका सम्मान किया क्योकि वे पर्व के दिन हरित अंकुरादि मे स्थित निर्दोष अनन्त निगोदिया जीवो की हिसा नही करना चाहते है । उक्त कथन से स्पष्ट है कि आचार्य जिनसेन ने उन अणुव्रतयो और पाप भीरुओ को श्रावक कहा है, जो पर्व के दिनो मे अनन्त निगोदिया जीवो की हिसा नही करते है, ग्यारह प्रकार से क्रमश: श्रावक के धर्म का पालन करते हैं और इज्या, वार्ता, दत्ती, स्वाध्याय, सयम और तप रुप कुल धर्म का पालन करते है । (5) आचार्य अमृतचन्द्र सूरी आचार्य अमृतचन्द्र सूरि ने अपने पुरुषार्थ सिद्धयुपाय ( 3/41) मे हिसा, असत्य वचन, चोरी कुशील और परिग्रह का एक देश रूप से त्याग करने वाले और देश चारित्र का पालन करने वाले को उपासक कहा है। तात्पर्य यह है कि हिंसादि पॉच पापो का अंश रूप से त्याग करने वाला श्रावक कहा गया है। (6) सोमदेव सूरि : सोमदेव सूरि ने अधर्म से रहित और धर्म कार्य के करने को चरित्र कहकर सागार और अनागार की अपेक्षा से उसके दो भेद किए है। देश (अशी) रूप से चारित्र का पालन करने वाले व्यक्ति को उन्होने (यशस्तिलक चम्पू 6/246-248) में श्रावक कहा है। इसी प्रकार से चामुण्डराय अमितगति आचार्य और वसुनन्दि के ग्रन्थो मे श्रावक की कोई परिभाषा दृष्टिगोचर नहीं होती है। (7) आचार्य पूज्यपाद ने उमास्वाती के "सम्यग्दृष्टि श्रावक इत्यादि सूत्र की व्याख्या करते हुए कहा है "वह अविरत समयग्दृष्टि अप्रव्याख्यानावरण कर्म के क्षयोपशम से परिणामो की प्राप्ति के समय विशुद्धि की प्रकर्षता होने से श्रावक होता है 29 तात्पर्य यह है कि अप्रत्याख्यानावरण कर्म चरित्र मोहनीय का एक भेद है जिसके उदय से देशविरति जीव कुछ नही कर सकता है। इसके क्षयोपशम से जीव के परिणामों में निर्मलता आ जाती है। (8) पं. आशाधर : ने सागार की निम्नांकित परिभाषाएँ दी है (क) जिस प्रकार ( वात पित्त और कफ इन तीन प्रकार के) दोषों की विषमता से उत्पन्न होने वाले ( प्राकृत साध्य प्राकृत असाध्य, वैकृत साध्य और वैकृत असाध्य इन) चार प्रकार के ज्वरो से दुखी मनुष्यो मे हित और अहित का ज्ञान नही होता है उसी प्रकार अनित्य अशुचि, दुःखित आदि पदार्थो को नित्य, पवित्र सुख और अपने से भिन्न स्त्री आदि पर पदार्थों को अपना मानने रुप आदिकालीन अविद्या (अज्ञानता) रुपी ( बात, पित्त एवं कफ की ) विषमता से उत्पन्न होने वाली

Loading...

Page Navigation
1 ... 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125