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अनेकान्त/4 से देखा जाय तो कहा जा सकता है कि शुद्ध आचार और विचार के द्वारा जीवन को यथार्थ विकास के लिए गति प्रदान करने वाला ओर शुद्धाचरण का पालन करने वाले प्राणियो को निम्न स्थान से उच्च स्थान पर पहुंचाने वाला धर्म जैन धर्म कहलाता है। जैन धर्म में आचार-विचार की अहिंसा प्रधान है। कहा भी है स्याद्वादो विद्यते यत्र पक्षपातो न विद्यते। अहिंसायाः प्रधानत्त्व जैन धर्म स उच्यते।। ___ अत अहिसावाद अनेकान्तवाद, स्याद्वाद, अपरिग्रहवाद एव अनीश्वरवाद जैन धर्म के स्तम्भ है।
(ब) मानव का चरम लक्ष्य सुख की प्राप्ति है : भारतीय मनीषियो ने बतलाया है कि उत्तम गुण) स युक्त मनुष्य-जन्म ससार का सार है मनुष्य सुखी होना चाहता है। वह जीवन का अभ्युदय चाहता है । वह ऐसे सुख को प्राप्त करना चाहता है, जो अबाधित और अनन्त हो। दूसरे शब्दों में स्वर्ग और मोक्ष के सुख को प्राप्त करना मानव-जीवन का चरम लक्ष्य है। इस सुख की प्राप्ति धर्म के द्वारा ही सम्भव है। अत धर्म मानव जीवन का परम सार है 8 सुख की प्राप्ति भारतीय चिन्तको ने नेतिक आचारण स मानी है। यही कारण हे कि जैन-आचार्यों ने "चारित्त खलु धम्मो” कहकर चरित्र को मोक्ष का साक्षात कारण माना है। अस्तु, प्रवृत्ति और निवृत्ति रुप धर्म गृहस्थ और मुनि धर्म की अपेक्षा से दो प्रकार का है। कहा भी है 11
"स धर्मो हि द्विधा प्रोक्तः सर्वज्ञेन जिनागमे ।
एकश्च श्रावकाचारो द्वितीयो मुनिगोचरः।।" अन्यत्र भी कहा है
"दो चेव जिणवरेहि, जाइजरामरण विप्पमुक्केहिं।
लोगम्मि पहा भणिया, सुस्समण सुसावगो वा वि।।" इनमे मुनिधर्म श्रेष्ट है इस लिए आचार्य अमृत चन्द सूरि ने कहा है कि जो मुनिधर्म का पालन करने में असमर्थ है और प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदित होने से विषयो को नहीं छोड़ सकता है उसे श्रावक धर्म का उपदेश देना चाहिए। ऐसा नही करने से वक्ता दंड का भागी होता है।12
(स) श्रावक धर्म का स्रोत यहाँ जिज्ञासा होती है कि वर्तमान मे श्रावक धर्म निरुपक जो साहित्य उपलब्ध है उसका स्रोत क्या है? यहाँ उल्लेखनीय है कि जैन धर्म के उपदेशक या तीर्थकर आगमो के भाव कर्ता और गणधर द्रव्यकर्ता होते है। सर्व प्रथम श्रावक धर्म का उपदेश आदि तीर्थकर ऋषभदेव ने दिया था
और उनके गणधर वृषभसेन ने उनके इस उपदेश को उपासकाध्ययन नामक सातवे अग मे निरूपण किया था। यह विशाल अग था। कहा गया है कि इस अग के समस्त पदो की सख्या 11 लाख सात हजार थी और एक-एक पद मे 16 अरव 34 करोड 83 लाख 6 हजार 8 सौ वर्ण थे। आदिनाथ भगवान का अनुकरण अजितनाथ आदि तीर्थकरों ने किया। इस युग के अंतिम तीर्थकर भगवान महावीर ने जिस श्रावक धर्म का निरुपण किया था, तदनुसार गौतम गणधर ने