Book Title: Anekant 1995 Book 48 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 77
________________ अनेकान्त/33 भी जैन ही हैं। दिगम्बरों में कॉफी के प्रमुख उत्पादक के रूप में श्री शांतिवर्मा, श्री धर्मपाल और श्री सन्तकुमार जाने-पहचाने नाम हैं । केरल के श्वेतांबर समाज विशाल और सुंदर मंदिर भी हैं। आलप्पी में पच्चीस लाख की लागत से एक सुंदर देरासर का निर्माणकिया जा रहा है। यह समाज कल्लिल के गुहा मंदिर को तीर्थस्थान मानता है कि हालांकि वह अब नंपूतिरि के अधिकार में है। उपर्युक्त शहरों मे यद्यपि श्वेतांबरों की ही संख्या सबसे अधिक है फिर भी श्वेतांबर अपने उत्सवों आदि को दिगम्बरों के साथ सहयोग कर मनाते हैं। इस का एक उदाहरण प्रस्तुत लेखक को पर्युषण पर्व का दिया गया। ऐसा लगता है कि केरल के इन शहरो में श्वेतांबर और दिगम्बर का भेद मिट गया है वैसे अपवाद तो हर स्थान पर होते हैं। विशेषकर मंदिरों और अतिथिगृहों के कर्मचारियों के व्यवहार में भेदभाव की भावना का कहीं-कहीं अनुभव होता है। यह समाज वैष्णवों के उत्सवो में भी सहयोग करता है। अकेले कोझिक्कोड में ही १५० से अधिक श्वेतांबर परिवार निवास करते हैं। इसी प्रकार यदि अन्य शहरों के श्वेतांबरों की संख्या जोडी जाएं तो यह परिणाम सामने आएगा कि केरल में केवल श्वेतांबरों की संख्या ही जनगणना में जैनों की संख्या से अधिक होगी। केरल के मलयालमभाषी और इस राज्य के मूल निवासी दिगम्बर जैनों और श्वेताम्बर जैनों की सख्या जनगणना के आंकडों से कम से कम दो गुनी तो अवश्य होगी ऐसा अनुमान सहज ही किया जा सकता है। यदि केरल के जैन भी अपने कुलनामो यथा वर्मा या वर्मन या शाह अथवा मेहताआदि के स्थान पर जैन शब्द का प्रयोग करें तो भी जनगणना के आंकडे वास्तविकता की झलक दे सकते हैं। केरल में कुछ जातियां और जनजातियां ऐसी भी हैं जिनमें जैनत्व के संकेत पाए जाते हैं। इस प्रकार के वर्ग में सबसे प्रथम हम नायर जाति का उल्लेख कर सकते है। यह सामान्यत विश्वास किया जाता है कि यह जाति मूल रूप से नाग जाति थी जिसके उपास्य देव सर्प फणावली मंडित पार्श्वनाथ थे और उनकी शासन देवी पदमावती की भी उनमे बड़ी मान्यता थी। केरल में सामाजिक क्रांति के सूत्रधार चटटीम्प स्वामी ने यह मत व्यक्त किया है कि नायर जाति अहिंसा के सिद्धांत को मानने वाली थी, उसकी अपनी सुव्यवस्थित शासन व्यवस्था थी और वह वर्णव्यवस्था से अपरिचित थी। ऐसा लगता है कि यह जाति पार्श्वनाथ को तो भूल गई और नागपूजक हो गई। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि हिंदू मंदिरों के रूप में परिवर्तित अनेक जैन मंदिरों का प्रबंध नायर लोगों के हाथ में था। इसी प्रकार पद्मावती देवी भी भगवती कही जाने लगी और उनके मंदिर भगवती मंदिर कहलाने लगे। केरल में एक जनजाति ऐसी भी है जो अपने संस्कार जैनों से करवाती है। प्रस्तुत लेखक को अष्टसहत्री ब्राह्मण

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