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अनेकान्त/21
परमपूज्य १०८ आचार्य सूर्यसागर जी के उद्गार
त्यागी को किसी संस्थावाद में नहीं पडना चाहिए। यह कार्य गृहस्थों का है। त्यागी को इस दलदल से दूर रहना चाहिए। घर छोडा व्यापार छोडा इस भावनासे कि हमारा कर्तृत्व का अहभाव दूर हों और समताभव से आत्म कल्याण करें। पर, त्यागी होने पर भी वह बना रहा तो क्या किया? इस संस्थावाद के दलदल में फंसाने वाला तत्त्व लोकैषणा से क्या होने जाने वाला है? जब तक लोगो का स्वार्थ किसी से सिद्ध होता है तब तक वे उसके गीत गाते है और जब स्वार्थ मे कमी पड़ जाती है तो फिर टके को भी नहीं पूछते। इस लिए आत्म परिणामों पर दृष्टि रखते हुए जितना उपदेश बन सके उतना त्यागी दे, अधिक की व्यग्रता न करे।
आज व्रतीवर्ग चाहे मुनि हो, चाहे श्रावक, स्वच्छन्द होकर विचरना चाहता है। मुनियों में तो उस मुनि को एकाविहारी होने की आज्ञा है जो गुरु के समीप रहकर अपने आचार-विचार मे पूर्ण दक्ष हो तथा धर्मप्रचार की भावना से गुरु जिसके एकाकी विहारं करने की आज्ञा दे दें। आज यह देखा जाता है कि जिस गुरु से दीक्षा लेते हैं उसी गुरु की आज्ञा पालन में अपने को असमर्थ देख नवदीक्षित मुनि स्वय एकाकी विहार करने लगते हैं। गुरु के साथ अथवा अन्य साथियो के साथ विहार करने में इस बात की लज्जा या भय का अस्तित्व रहता था कि यदि हमारी प्रवृत्ति आगम के विरूद्ध होगी तो लोग हमें बुरा कहेंगे, गुरु प्रायश्चित्त देगे पर एकाविहारी होने पर किसका भय रहा? जनता भोली है इसलिए कुछ कहती नही, यदि कहती है तो उसे धर्म निन्दक आदि कहकर चुप कर दिया जाता है। इस तरह धीरे-धीरे शिथिला चार फैलता जा रहा है। कोई ग्रन्थमालाओ के संचालक बने हुए है तो कोई ग्रन्थ छपवाने के संचालक बने हुए हैं तो कोई ग्रन्थ छपावने की चिन्ता मे गृहस्थो के घर-घर चन्दा मांगते फिरते हैं। किन्हीं के साथ मोटरें चलती है तो किन्हीं के साथ गृहस्थ जन दुर्लभ कीमती चटाइयां और आसन के पाटे तथ छोलदारियां चलती है । त्यागी ब्रह्मचारी लोग अपने लिए आश्रय या उनकी सेवा में लीन रहते हैं। 'बहती गंगामें हाथ धोने से क्यो चूंके? कितने ही विद्वान उनके अनुयायी बन आँख मीच चुप बैठ जाते है या हाँ ये हॉ मिला गुरु भक्ति का प्रमाण पत्र प्राप्त करने में संलग्न रहते हैं।
( मेरी जीवन गाथा से)