Book Title: Anekant 1995 Book 48 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 70
________________ अनेकान्त/28 आसपास नारियल के पेड न लगे हों। नारियल के पेड को केरलवासी कल्पवृक्ष भी कहते हैं। बच्चों को इस वृक्ष के दो नाम बताए जाते हैं- कल्पवृक्ष और तेड ड । किंतु कुछ शुद्धिवादी लोग सांस्कृतिक महत्व के इस शब्द को कोश में स्थान ही नहीं देते हैं। इस कल्पवृक्ष का हर भाग काम में आता है, यह पूरे वर्ष फल देता है और लगभग सौ वर्ष की इसकी आयु होती है। इस शब्द को सुनकर उस समाज व्यवस्था का स्मरण हो आता है जब वैदिक धारा में भी आदर प्राप्त एवं जैनों के प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव से पहले की पूर्ति दस प्रकार के कल्पवृक्षों से हुआ करती थी। एक कल्पवृक्ष यदिउनहें वस्त्र प्रदान करता था, तो दूसरा औषधि, तो तीसरा खाद्य पदार्थ और चौथा प्रकाश इत्यादि । किसी को आश्चर्य हो सकता है कि वृक्ष प्रकाश कैसे दे सकता है तो उसका उत्तर यह है कि आज साधकों ने हिमालय में ऐसी जडी-बूटीं ढूंढ निकाली है जो रात्रि के समय रेडियम की तरह पर्याप्त प्रकाश देती है। इस बूटी की खोज और प्रकाश आदि के सबंध में विस्तृत विवेचन प्रसिद्ध ज्योतिषी डा श्रीमाली ने अपनी पुस्तक "तंत्र गोपनीय रहस्यमय सिद्धियां" के पृष्ठ ३७ से ४२ पर दिया है। अतः कल्पवृक्ष संबंधी जैन मान्यता पर अविश्वास का कोई कारण नहीं जान पडता । जैन पुराणों में इन कल्पवृक्षो का विवेचन अनिवार्य रूप में पाया जाता है। जब इनसे मनुष्यो की आवश्यकताओं की पूर्ति मे कमी हुई, तब प्रथम राजा ऋषभदेव ने प्रजा को गन्ने आदि की खेती करना सिखाया। ऋषभदेव का स्मरण केवल जैन ही नहीं करते हैं अपितु वैदिक धारा के महत्वपूर्ण चौदह पुराण उनका और उनके पुत्र भरत की चर्चा आदरपूर्वक करते हैं। उन्हीं के पुत्र भरत के नाम पर यह देश इन पुराणों के अनुसार भी भारत कहलाता है। ऋषभदेव को तो विष्णु और शिव का अवतार भी मान लिया गया है। वैसे शकुतला-पुत्र के नाम पर भारत जैसी गलत धारणाएं फैलाने वालों की इस देशमे कोई कमी नही है । प्रश्न उठ सकता है कि क्या कल्पवृक्ष केरल मे जैनमतम् के प्रसार की कोई सूचना देता है? भाषा वैज्ञानिक जानते हैं कि ऐसे शब्दो मे भी जो कि अब अलग-थलग पड़ गए हैं बहुत-सा इतिहास छिपा होता है। मलयालम भाषा में आजकल प्रचलित पळळीक्कूडम् शब्द जिसका अर्थ स्कूल होता है, केरल में जैन प्रभाव की सूचना देता है। इस तथ्य को केरल के ही निष्पक्ष विद्वानो ने स्वीकार किया है। मलयालम भाषा और प्राकृत अध्याय मे इसकी चर्चा की गई है। समिति और सभा जैसे गिनती के शब्दों के आधार पर ही तो वैदिक युग में भी गणतंत्र की कल्पना कर ली गई है। पितृ, दुहित, मातृ जैसे शब्दों के उच्चारण-भेद के कारण ही यूरोप और भारत की भाषाएं आर्य-भाषा परिवार में आ गई हैं और भाषा विज्ञान नामक एक विज्ञान ही उद्भूत

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