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अनेकान्त/14
जैन- शौरसेनी किं वा शौरसेनी
लेखक : एम० एल० जैन कुन्दकुन्द भारती द्वारा सम्पादित १६६४ में प्रकाशित समयसार के द्वितीय संस्करण के 'मुन्नडि' में भाषा विचार शीर्षक के अन्तर्गत बताया गया था कि प्राकृत में कई भेद हो गए, यथा मागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री, पाली, पैशाची। डॉ० पिशल आदि विद्वानों ने जैन महाराष्ट्री व जैन शौरसेनी रूप भी स्वीकार किया है। अर्धमागधी जैन आगम की भाषा है। क्योंकि दिगम्बर सम्प्रदाय की कुछ रचनाओं में शौरसेनी की अधिकांश विशेषताएं उपलब्ध होती है, इसलिए उसे जैन शौरसेनी माना गया है। कुन्दकुन्द की सभी रचनाएं जैन- शौरसेनी मे रची गई हैं। वे जैन- शौरसैनी के आद्य कवि और रचनाकार माने जाते
किन्तु इस वर्ष १६६४ मे अक्टूबर में जो गोष्ठी कुन्दकुन्द भारती मे शौरसेनी प्राकृत पर आयोजित हुई, उसी समय के आसपास से उपरोक्त मान्यताओं में परिवर्तन आया जान पड़ता है और "प्राकृत विद्या' में छपे लेखों आदि में जो प्रतिपादित किया गया है उसका सार यह है कि तमाम प्राकृतों के मूल में है शौरसेनी प्राकृत और शुद्ध शौरसेनी प्राकृत वही है जिसमें दिगम्बर जैन आगम (षट्खण्डागम आदि) निबद्ध हैं और यह शौरसेनी अपने व्याकरण के नियमों के अनुसार है, किन्तु पाश्चात्य विद्वानों ने जैन शौरसेनी, जैन महाराष्ट्री आदि नाम देकर हमारी भाषाओ का विभाजन कर दिया है।
स्वर्गीय पण्डित हीरालाल ने १६७७ के अपने एक लेख में प्राकृत व्याकरण के नियम तो वही बताए जो आचार्य हेमचन्द्र ने निर्धारित किए हैं परन्तु उनके सूत्र 'प्रकृति संस्कृतम् तत्र भवं तत् आगतं वा प्राकृतम्" को नजर अंदाज करते हुए यह अन्दाज लगाया कि प्राकृत की शाखा मागधी, अर्ध मागधी या महाराष्ट्री आदि प्राचीन बोलचाल की प्राकृतिक (स्वाभाविक) बोलियों का संस्कार करके संस्कृत भाषा के रूप मे तात्कालिक महर्षियों ने एक अन्तर्राष्ट्रीय भाषा का निर्माण किया३ (शायद उसी तरह जैसे खड़ी बोली हिन्दी ने अन्य प्रादेशिक भाषाओं राजस्थानी, बृज व अवधी आदि को पीछे धकेल दिया।)
अब यह तो साफ है कि हमारे मनीषी प्राकृत भाषा के ज्ञान के साथ साथ भाषा-विज्ञान में भी महारत रखते हैं और जैन शास्त्रों के साथ साथ उनके