Book Title: Anekant 1995 Book 48 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 58
________________ अनेकान्त/16 प्राकृत सस्कृत से निर्गत हुई है किन्तु प्राकृत भाषा का विशद अध्ययन करके पिशल आदि विद्वान् इस निर्णय पर पहुचे हैं कि प्राकृत भाषा के मूल मे केवल एक संस्कृत भाषा ही नही अन्य बोलिया भी है तथापि यह भी स्वयं सिद्ध है कि संस्कृत भाषा ही प्राकृत की आधारशिला है ।१० दरअसल, प्राकृत यह नाम भी बाद मे सस्कृत के संदर्भ में दिया गया है। खोज का विषय यह है कि इस भाषा का उस समय जब वह आम बोलचाल की भाषा रही थी, असली क्या नाम था। यदि प्राकृत मे ही यह नाम होता, तो पाउअ, पाउड, पाइअ ऐसा कुछ नाम होता जिसका संस्कृतीकरण होकर प्राकृत नाम पडा । ऐसी कोई उलझन पिशल के सामने भी थी और उसने अपनी व्याकरण का प्रारंभ यह कह कर किया है कि 'भारतीय वैयाकरणो और अलंकार शास्त्र के लेखकों ने कई साहित्यिक भाषाओं के समूह का नाम प्राकृत रखा है।" सातवी सदी के जैन महाकवि रविषेण ने तो लिखा है नामाख्यातोपसर्गेषु निपातेषु च संस्कृता प्राकृती शौरसेनी च भाषा यत्र त्रयी स्मृता ।।११ इससे जाहिर होता है कि रविषेण के समय मे सस्कृत, प्राकृत और शौरसेनी ने ये तीन अलग अलग भाषाएं मानी जाती थी। प्राकृत से रविषेण का मतलब वह भाषा होना चाहिए जिसे महाराष्ट्री प्राकृत कहते है। यही मत स्वर्गीय पण्डित हीरालाल का जान पडता है। उनके लेख मे जो तुलनात्मक तालिका दी हुई हैं, उसमे उनके प्राकृत और शौरसैनी को अलग मान कर प्राकृत (महाराष्ट्री) और शौरसैनी का अन्तर स्पष्ट किया है |१२ वररूचि ने अन्य प्राकृत मागधी, पैशाची को शौरसेनी प्राकृत से निर्गत माना है और इन तीनो भाषाओ के विशिष्ट नियम देकर शेष के लिए महाराष्ट्रीवत् करार दिया है ।१३ यदि छठी सदी के वररूचि व सातवी सदी के रविषेण द्वारा दी गई जानकारी का कोई मेल बिठाया जाए, तो कहना होगा कि शौरसेनी प्राकृत ने सातवीं सदी के आते आते यों कहिए कि एक सौ साल के अतराल में प्राकृत से भिन्न एक स्वतंत्र अस्तित्व प्राप्त कर लिया और वह केवल शौरसेनी नाम से जानी जाने लगी। किन्तु शौरसेनी फिर अपना वर्चस्व खो बैठी और प्रकृतो में ही गिनी जाने लगी। वास्तव में बात यह है कि जब जन साधारण की भाषा साहित्य और दर्शन की भाषा, वह भी पद्यमय, बनती है तो उसका सस्कार हो जाना लाजमी है। इसलिए पिशल को कहना पड़ा कि प्राकृत भाषाएं अतत कृत्रिम व काव्य की भाषाएं हो गई जैसे कि सस्कृत हुई ।१४ जब भाषा विज्ञानियो ने बाद में उनीसवीं सदी में आकर इन भाषाओ में रचित साहित्य का गहन अध्ययन किया तो पता चला कि जैन आगमों की भाषा न पूर्णतः महाराष्ट्री है, न पूर्णत शौरसेनी, यह

Loading...

Page Navigation
1 ... 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125