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अनेकान्त/17
एक ऐसी समृद्ध भाषा है जो केवल जैन आगमों में ही पाई जाती है या जिसे नाटकों में जैन पात्र बोलते थे तो, उसे इस विशिष्टता के कारण जैन महाराष्ट्री व जैन शौरसेनी ये नाम देने पडे। इसलिए यह शिकायत कि जैन विशेषण लगाकर विदेशी विद्वानों ने राजनैतिक व सामाजिक विभाजन की नीति के अनुरूप भाषाओ का भी विभाजन कर दिया, सही नहीं है ।१५
नवीन धारणा के क्रम में अब यह कठिनाई आई कि शौरसेनी तो मथुरा के आसपास की भाषा थी,१६ तो फिर दक्षिण प्रदेश के आचार्यों ने शास्त्र इस भाषा में क्यो लिखे। हो न हो इस भाषा का दक्षिण में आम प्रचलन रहा होगा। इन विद्वानों ने अदाज लगाया कि मथुरा व्यापार का बड़ा केन्द्र था, उत्तर-दक्षिण के तीर्थों की यात्रा का मार्ग भी मथुरा होकर था, इसलिए व्यापारी व तीर्थयात्री इस भाषा को दक्षिण में भी ले गए। बात यह भी थी कि भद्रबाहु व उनके हजारों शिष्यों ने दक्षिण मे शौरसेनी में उपदेश दिए इसलिए वहा के लोग इस भाषा को सीख ही गए होंगे और जब इतना व्यापक सम्पर्क व प्रचार हो गया तो आचार्यों ने यह भाषा ही शास्त्र रचना के लिए सर्वोपयोगी पाई। मेरे विचार से इतनी ऊहा पोह की जरूरत नहीं थी। सरल अनुमान यह है कि मूल आगम गिरनार की गुफा में अवतरित हुआ और भूतबलि व पुष्पदत ने जिस भाषा में उसे निबद्ध किया, जैन दर्शन में रूचि रखने वाले आचार्यों ने उस भाषा को अवश्य ही सीखा होगा और जब वे इस भाषा मे पारगत हो गए तो साहित्य सर्जन मे क्या कठिनाई हो सकती थी? आज भी हिन्दी या अन्य भाषा भाषी लोग संस्कृत मे लिख पढ रहे है, प्राकृत में काव्य रचना कर रहे है। ठीक उसी प्रकार दक्षिण के विद्वानो ने शास्त्र रचनाकी है। अलबत्ता, प्राकृत भाषा की प्रमुख पत्रिका 'प्राकृत विद्या' के हर अक मे संपादकीय अथवा कम से कम एक लेख शौरसेनी गद्य में अनिवार्यत प्रकाशित किया जाए तो शौरसेनी के मूल रूप को समझने तथा उसे प्रचार प्रसार में एक बड़ा योगदान होगा। इसके अलावा जब जहां भी प्राकृत भाषा की शिक्षा दी जाए, तो यह सुनिश्चित किया जाए कि इसके पाठ्यक्रमों के लिए जो पुस्तकें तैयार हो उनमे शौरसेनी के सिलसिले में षट्खण्डागम आदि के उद्धरण व उदाहरण अवश्य दिए जाएं।
इसी विचार मथन के सिलसिले में एक सुझाव यह भी आया१७ कि आगम ग्रंथों के गलत सूत्रपाठ करने वाले व्यक्ति को दोषी माना गया है, अतः न केवल मुनिगण अपितु आचार्यवृन्द इस बात की आवश्यकता को समझें कि शौरसेनी भाषा का ज्ञान अर्जित किए बिना किसी नव दीक्षार्थी को दीक्षा न दें । भला जो प्रतिक्रमण सूत्र तक ठीक से नहीं पढ़ सकते हैं वे उसका अर्थबोध कैसे कर सकेंगे तथा इन दोनों के अभाव में मुनिधर्म के नित्य कर्म कैसे संपादित कर सकेंगे।