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अनेकान्त/7
आगमों के प्रति विसंगतियाँ
लेखक : पदमचन्द्र शास्त्री, दिल्ली डॉ ए एन उपाध्ये एवं डॉ हीरालाल जैन दोनों मनीषियों ने प्राकृत भाषा के ग्रन्थों का सम्पादन किया तथा परंपरित प्राचीनतम दिगम्बर आगमों के व्यवस्थित प्रकाशनों के लिए नियत पं बालचन्द्र शास्त्री एवं हीरालाल शास्त्री प्रभृति अन्य विद्वानों को अपना पूरा दिशा निर्देश किया। हमारी दृष्टि में प्राकृत भाषा मे आज शायद ही कोई दिगम्बर जैन विद्वान ऐसा हो जो अपने को उनके समान विज्ञ घोषित कर सके। दोनो मनीषियों ने आगमिक प्राकृतों का गहन अध्ययन कर निष्कर्ष निकाला कि दिगम्बर आगमों की भाषा कोई एक जातीय (शौरसेनी आदि) प्राकृत भाषा नहीं है, अपितु आगमों की मूलभाषा में अन्य जातीय भाषाएं भी गर्भित है। तीर्थकरो की दिव्यध्वनि को सर्व-भाषा-मिश्रित कहा है। गणधर और परम्परित आचार्य उस भाषा को अर्धमागधी में प्रकट करते हैं। वह प्रमाणिक होती है- आगम भी प्रामाणिक होते है। यदि उसमे बिन्दु मात्र का भी अन्तर हो जाय तो वह गणधर की वाणी नहीं कहलाई जायगी- किसी अन्य की वाणी होगी। फलत. आचार्य कुन्दकुन्द ने स्वयं साक्षी दी कि "सुय केवली भणिय'- यानी मैं कुछ नहीं कह रहा अपितु जो श्रुत केवली ने कहा वही कह रहा हूँ आदि। जिन सहस्रनाम के तीर्थकृच्छतक के श्लोक ५३ में गृहीत् 'सर्वभाषामयीगी:' का अर्थ आशाधर स्वोपज्ञवृत्ति में 'सर्वेषां देशानां भाषामयी गीर्वाणी यस्य' अर्थात् जिनकी वाणी सर्वदेशों की भाषामयी थी ऐसा कियाहै।
इसी स्तोत्र की श्रुतसागरी टीका श्लोक ५० में गृहीत ‘अर्ध मागधीयोक्ति' का अर्थ 'अर्ध मगध देश भाषात्मकं। अर्धच सर्व भाषात्मक' अर्थात् आधी मगध देश की भाषा और आधी (में) सर्वभाषाएँ (थी) ऐसा किया है।
महापुराण ३३/१२० श्लोक मे 'नाना भाषात्मिकां दिव्य भाषाम्' और इसी पुराण के ३३/१४८ में 'अशेषभाषा भेदानुकारिणी' का अर्थ (भाव) भी यही है कि अर्धमागधी भाषा थी। इसी कथन की पुष्टि द पा टीका ३५/२८/१२, चन्द्रप्रभ १८/१, क्रिया क० पृ २४७ में भी की गई है। इसके सिवाय हमारी दृष्टि में कहीं किसी परम्परिताचार्य का कोई उल्लेख देखने में नहीं आया कि आगमवाणी शौरसेनी (शूरसेन देश की) भाषा मात्र में थी। और न ही आचार्यो द्वारा कथित कोई प्राचीन प्रमाण शौरसेनी पोषकों द्वारा मिला।