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अनेकान्त/6
५ अरहंत आप्त है। उनकी श्रद्धा से अन्य में श्रद्धा होती है
अतः अरहंतों को प्रथम नमस्कार किया गया है। चत्तारि दण्डक में पठित साधु शब्द आचार्य, उपाध्याय और साधु तीनों का उपलक्षण है। अत. तीनों को पृथक-पृथक् उल्लिखित नहीं किया गया है। पंचम परमेष्ठी साधु के पूर्व जुडा सर्व पद साभिप्राय है । मूलाचार में कहा गया है कि निर्वाण के साधन भूत मूलगुण आदिक में सर्वकाल अपने आत्मा को जोड़ते हैं और सब जीवों में समभाव को प्राप्त होते हैं, इसलिए वे सर्वसाधु कहलाते हैं। धवलकार ने णमोकार मन्त्र में पठित सर्व और लोक पदों को अन्त दीपक मानते हुए उनका सबके साथ योग अभीष्ट माना है।
अनगार धर्मामृत मे णमोकार मंत्र की उच्चारण विधि का वर्णन किया गया है। इसके अनुसार प्रथम भाग में णमो अरहताणं, णमो सिद्धाणं दो पदों का, द्वितीय भाग में णमों आयरियाणं णमो उवज्झायाणं दो पदों का तथा तृतीय भाग में णमो लोए सबसाहूणं पद का उच्चारण एवं ध्यान करना चाहिए। इस मंत्र में कुल पांच पद, पैतीस अक्षर तथा अट्ठावन मात्राये हैं। णमोकार मत्र का गाथा की तरह उच्चारण भी किया जा सकता है। किन्तु यह गाथा के प्रचलित सात प्रकारों से भिन्न है। क्योकि गाहू में ५४, गाथा एवं विगाथा मे ५७, उद्गाथा में ६०. गाहिनी एवं सिंहिनी मे ६२ तथा स्कन्धक में ६४ मात्राओं का विधान है, जबकि सिद्धाणं के सकारोत्तरवर्ती इकार को हस्व (स्वराघात न होने से) मानने पर इस मन्त्र में ५७ मात्राये होती है । अत यह एक मन्त्र है, अत इसकी आनुपूर्वी में किंचित् भी परिवर्तन नहीं किया जा सकता है। ओम्' बीजाक्षर के साथ पाठ भले ही समीचीन हैं, किन्तु अन्य रूपों मे तोड मरोड कर मन्त्र का पाठ साधनापद्धति के अनुकूल नहीं है। अत जहा तक संभव हो मन्त्र को न्यूनाक्षर या अधिकाक्षर नहीं पढना चाहिए।
- २६१/३, पटेल नगर, मुजफ्फरनगर
"तित्थयर भासियत्थं गणहर देवेहिं गंथियं सव्वं।
भावेहि अणदिणु अतुलं विसुद्ध भावेण सुयणाणं।।' - तीर्थकर ने कह्या अरगणधर देवनि ने गूंथ्या, शास्त्ररूप रचना करी, ऐसा श्रुतज्ञान है, ताहि सम्यक् प्रकार भाव शुद्धकरिनिरन्तर भाय. वह श्रुतज्ञान अतुल है।
-भाव पा० ६२
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