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अनेकान्त/३२
से । जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश से अधकार विलीन हो जाता है उसी प्रकार आत्मा के क्षितिज पर ज्ञान सूर्य उदित होते ही मोह-अन्धकार विलीन हो जाता है | मोक्षमार्ग का सूत्र है -पदाथी के यथार्थ ग्रहण के साथ आत्म श्रद्धा ज्ञान और चारित्र । मोक्ष का साधन है -शुद्धोपयोग । मोक्ष मार्ग का उपकरण है + भेद-विज्ञान । भेद-विज्ञान पूर्वक आत्मानुभव से आत्म श्रद्धान एवं आत्मोपलब्धि होती है, जिससे मोह ग्रन्थि का क्षय होता है । शुद्धात्मा के निरंतर ध्यान रूप तप एवं शुद्धोपयोग से राग-द्वेष का जनक चरित्र मोह का क्षय होकर आत्मा परम आनंद मय होता है । इस क्रम में ब्रत क्रिया के शुभोपयोग रूप अनेक पड़ाव आते है और विलीन होते जाते है । यह तभी तक कार्यकारी होते है जब दृष्टि शुद्धात्मा पर होती है । आत्म-श्रद्धान-विहीन भाव-रहित व्रत-क्रियाए मोक्ष मार्ग मे अकिचनकर होती है। आगम मे कहा भी है कि सम्यकत्व विना करोड़ो वर्ष तक उग्रतप भी नपै तो भी वोधि की प्राप्ति नहीं होती (दर्शन पा. ५) । इसी प्रकार चारित्ररहित ज्ञान, दर्शन रहित साक्ष लिग तथा संयम रहित तप निरर्थक है। (शीलपाहूड ५) भाव रहित द्रव्यलिंग होने पर कर्म की निर्जरा नामक कार्य होता है, केवल द्रव्यलिग से नही । भाव सहित नग्नत्व कार्यकारी है । है धैर्यवान मुने निरतर नित्य आत्मा की भावना कर (भावपाहुड ५५-५५) और पदार्थो को यथार्थ रूप से ग्रहण कर मोक्ष मार्ग में प्रवृत्त हो (प्र सार २७१) ऐसे साधु ही धर्म स्वरूप और आगम चक्षु होते है ।
आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार सम्यक (यथार्थतया) पदार्थो को जानते हुए जो बहिरग तथा अतरंग परिग्रह को छोडकर विषयो से आसक्त नहीं है वे शुद्ध कहे गये है (प्र सार गाथा २७४) । ऐसे शुद्ध (शुद्धोपयोगी) को श्रमण्य कहा है और शुद्ध को दर्शन तथा ज्ञान कहा है, शुद्ध के निर्वाण होता है, वही सिद्ध होता है, उन्हे नमस्कार हो । (प्रवचनसार गाथा २७२) जिनेन्द्र देव द्वारा दर्शाये गये त्रिरत्न रूप मोक्षमार्ग के अनुगामी और मौनधारण कर पंचाचार द्वारा इन्द्रिय मन जीतने वाले निर्गन्थ मुनि, ज्ञान-स्वभावी आत्मा मे रमण करने वाले समत्वधारी आत्मा-साधक साधू, समस्त पर ज्ञेयो की परिक्रमा का निरोध कर यत्नाचारपूर्वक शुद्धोपयोग के धारक यति और आत्म ऋजुता के शिखर पर आसीन ऋद्धिधारी ऋषियों को बारम्बार नमस्कार हो । उपसंहार
जो व्यक्ति अपनी आत्मा को जैसा देखता है, वैमा ही हो जाता है। आत्मा को शुद्ध जानने वाला शुद्धात्मा को पाता है और अशुद्ध जानने वाला अशुद्ध आत्मा को पाता है । (समयसार गाथा १८६) सभी जीव जिनोपदिष्ट आत्मोपलब्धि द्वारा दर्शन मोह का क्षय कर शुद्धोपयोग द्वारा मोह क्षोभरहित साम्यभाव युक्त चारित्र धारण कर परमसुखी हो, यही कामना है।
इस अक के लिए काग़ज़ श्री सलेक चन्द्र जैन कागजी ३, दरियागंज, नई दिल्ली-११०००२ से सधन्यवाद प्राप्त