Book Title: Anekant 1995 Book 48 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 34
________________ अनेकान्त/२९ मोक्ष मार्ग में भेद-विज्ञान की भूमिका बन्ध मार्ग में मिथ्यात्व एवं कषाय रूप मिथ्या चारित्र की प्रभावी भूमिका है, क्योंकि नवीन कर्म-बन्ध पदार्थो के अयथार्थ ग्रहण एवं पर ज्ञेयों के प्रति ममत्व/मैत्री भाव से होता है, जबकि मोक्ष मार्ग का अवतरण आत्मा के अखण्ड ज्ञान के प्रचण्ड भाव के क्षितिज पर होता है । इसमे आत्म ज्ञान एवं भेद विज्ञान की ही भूमिका महत्वपूर्ण होती है | भेद-विज्ञान के द्वारा आत्मा जव आत्मा-अनात्मा, स्वभाव-विभाव, इन्द्रिय-अतिन्द्रय सुख, संसारमार्ग-मोक्ष मार्ग. शुद्ध-अशुद्ध भाव आदि का निर्णय कर सर्वविकल्प भेदो को भूलकर अपने ज्ञान स्वभाव में स्थित होकर स्व का ज्ञायक बनता है । तब ससार दुख जन्य अज्ञान अन्धकार स्वत विलीन हो जाता है । जिस प्रकार प्रकाश के उदय होते ही अन्धकार स्वत तिरोहित हो जाता है, उसी प्रकार आत्म-ज्ञान के प्रकाश में अज्ञान-अधकार एव मोह रूप आत्मा की पर-समय प्रवृत्ति का हास होने लगता है | अन्धकार विनाश की प्रक्रिया मे प्रकाश यह नही देखता कि अंधकार कव से है, कैसे आया और कहाँ से आया । वस्तुत यह उसका स्वभाव भी नही है । उसका काम तो अपने स्वरूप बोध के साथ उदित होकर प्रकाश करना है । जैसे ही प्रकाश होता है, अन्धकार म्वत दूर भाग जाता है । अन्धकार भगाने या मिटाने के लिए प्रकाश को कुछ प्रयास नही करना पड़ता | वह सहज ही होता है । प्रकाश, प्रकाश में रहता है । वह कही किसी पर पदार्थ या अन्धकार में कुछ करता नही है । प्रकाश के अपने स्वरूप में "होने या रहने' का ही उसका कार्य है, जो वह करता है । इससे स्पष्ट है कि जब आत्मा अपने ज्ञान स्वरूप मे "होती या रहती है'' तव पर-समय रूप परतंत्रता स्वतः समाप्त हो जाती है । इस कार्य मे उसे किसी पर पदार्थ मे कुछ करना या न करना नही पडता, मात्र अपने ज्ञान -स्वरूप मे होना या रहना होता है । मन मे जव परनिमित्त से क्रोधादि विकार भाव ज्ञात व अज्ञात रूप में आते है तब भी जागरूक प्रवुद्ध आत्मा उन भावों से रति - अति न कर मात्र उनका ज्ञायक ही बनी रहती है । यह ज्ञायक भाव आत्म ज्ञान एवं आत्म रूचि के क्षितिज पर ही उदित होता है | कर्म बन्ध में मिथ्यात्व एव कपायो की भूमिका को देखते हुए प्राय. यह भाव सहज ही उत्पन्न हो जाता है कि कषाय कम करो, या मन्द करो आदि । प्रथमतः यह विचार पदार्थो के अयथार्थ ग्रहण का प्रतिफल होने से यह ससार मार्ग का सूचक है । दूसरे, जैन दर्शन में आत्मा पर भाव या पर-द्रव्य अकर्ता-अभोक्ता होने के कारण उसे यह इष्ट नही है । तीसरे, कषाय की उत्पत्ति का निमित्त एव समय आदि अनिश्चित होता है । ऐसी स्थिति मे उसे कम करने या न करने की बात मिथ्या हो जाती है । चौथे, स्वभाव से आत्मा नो मात्र ज्ञायक ही है । वह जानने के अतिरिक्त अन्य कुछ कर ही नहीं सकता। हालांकि वह भावो के अनुरूप शुद्ध-अशुद्ध होता है । ऐसी स्थिति मे कपाय आदि में दृष्टि उठाकर आत्म केन्द्रित करना आचार्यो को इप्ट लगा । इसी कारण "वन्ध कारण अभावः मोक्ष मार्गः" के स्थान पर “सम्यकदर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्ष मार्गः'' सूत्र की रचना हुई। धर्म का अवर्णवाद रोकने हेतु इस रहस्य को समझना आवश्यक है।

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