Book Title: Anekant 1995 Book 48 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 22
________________ अनेकान्त/१७ ने चाहा वहाँ चरण और टोंकें बनवा दी, क्योकि वह उनकी निजी सम्पत्ति है । दिगम्बर जैन तो यहाँ सैलानी के रूप मे आते थे मानो वह स्थान धार्मिक और पवित्र न होकर मैर-सपाटे की जगह हो । जव यही प्रश्न दिगम्बरो से पूछा गया तो उन्होंने बताया कि उनके शास्त्रो के अनुसार जिन देवो न चिन्हित कर दिया था वही भगवान के चरण चिन्ह स्थापित कर टोके बनाई गई । विद्वान न्यायाधीश ने निर्णय में कहा कि स्थान की निश्चितता इस बात का प्रमाण है कि वे सभी स्थल दिगम्बरों की प्राचीन मान्यता के पूजनीय स्थल हैं। उन्होंने तो यहाँ तक कह दिया कि वहाँ अगर चबूतरे, टोंके या चरणचिन्ह न भी होते तो भी उक्त स्थल दिगम्बरों द्वारा अवश्य पूजे जाते । उपरोक्त सभी प्रमाणो में सिद्ध होता है कि श्वेताम्बर ईसा की पाचवी शताब्दी के अंत मे मुख्य जैन धारा से अलग हुए है क्योंकि पाचवी शताब्दी क अत तक वह भी दिगम्बर प्रतिमाओं की पूजा-अर्चना करते थे । स्पष्ट है कि जैन धर्म की मुख्य धारा के मानने वाले ही दिगम्बर है, इसलिए श्री सम्मट शिखरजी मिद्ध क्षेत्र मलरूप में दिगम्बरो का ही है। जिसकी पुष्टि विभिन्न न्यायालयो द्वारा अनेक बार की गई है । हमारा श्वेताम्बर बन्धुओ से आग्रह है कि श्री सम्मेद शिखरजी के विषय मे पुन विचार कर भगवान महावीर के अहिसा मिद्धान्न पर चलकर निर्णय ले और सामाजिक यौहार्द के अन्तर्गत मिल जुल कर वहां की व्यवस्था में योगदान दे ताकि तीर्थराज का सही अर्थो में विकास किया जा सके । इससे उन लाखो यात्रियों की यात्रा निरापद हो जायेगी, जा पर्वत की अव्यवस्था के कट झेल रहे है । मंत्री, श्री सम्मेद शिखरजी आन्दोलन समिति जन वालाश्रम, दरियागज, नई दिल्ली - ११०००२ मूर्तिपूजक श्वेताम्बरी न पारसनाथ पर्वत पर प्राचीन काल की २० तीर्थकरो की टांको के अतिरिक्त उन चार तीर्थकरो की नई टोकं भी बना दी हैं जो इस पर्वत ये माक्ष ही नहीं गाए । यह कार्य तीर्थ की प्राचीनता पर प्रश्नचिन्ह लगाता है, क्योंकि यह कृत्य धर्म विरुद्ध है।

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