Book Title: Anekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 17
________________ १२] अनेकान्त कोई पाहुना आ गया है. या पत्नीने सरस भोजन बनाया है। किम कारणसे तेरा मुख आज म्लान दीख रहा है। कृपणने कहा कि मित्र ! मुझे घरमें पत्नी सताती है, यात्रा चलनेके लिये धन खरचनेको कहती है, जो मुझे नहीं भाता, इसी कारणसे मैं दुर्बल हो रहा हूँ, रात-दिन भूख नहीं लगती । मित्र मेरा तो मरण आ गया है। तब मित्रने कहा कि हे कृपण ! सुन, तू मनमें दुःख न कर । पापिनी को पीहर पठाय दे, जिससे तुझे कुछ दिनों सुख मिले | यह सुनकर कृपणको अति हर्ष हुआ । एक आदमीको बुलाकर एक झूठा लेख लिख दिया कि तेरे जेठे भाईके घर पुत्र हुआ है, अतः तुझे बुलाया है । यद्यपि पत्नी पति के इस प्रपंचको जानती थी किन्तु फिर भी वह उस पुरुपके साथ पीहर चली गई । [ वर्ष १४ में रहती हूँ। दूसरे यात्रा, प्रतिष्ठा दान और चतुविध संघ पोपणादिकार्य हैं । उनमें से तूने एक भी नहीं किया अत: मै तुम्हारे साथ नहीं जा सकती । इस तरह कृपण विचार कर ही रहा था कि जीभ थक गई, वह बोलने में असमर्थ हो गया। वह इस संसार से विदा हो गया और मर कर कुगति में गया, पश्चात् पत्नी आदिने उसे संचित द्रव्य को दान धर्मादि कार्यों में लगाया । जब संघ यात्रा से लौटकर आया, तब ठौर-ठौर ज्यौना की गई, महोत्सव किये गए। और माँगने वालों को दान दिया गया, अनेक वाजे बजे, और लोगोंने असंख्य धन कमाया । जब इस बातको कृपणने सुना तो अपने मन में बहुत पछताया, यदि मैं भी गया होता तो खूव ज्यांणार खाता, व्यापार करता और धन कमाकर लाता, पर हाय कुछ भी नहीं कर सका। दैवयोगसे कृपण बीमार हो गया, उसका अन्त समय समझ कर कुटुम्बियांने उसे समझाया और दान पुण्य करनेकी प्रेरणा की । तत्र कृपने गुम्सेसे भरकर कहा कि मेरे जीते या मरने पर कौन मेरा धन ले सकता है मैंने धनको बड़े यत्नसे रक्वा है । राजा, चार और श्रगसे उसकी रक्षा की है । अब मैं मृत्युके सम्मुख हू अतः हे लक्ष्मी तू मेरे साथ चल, मैंने तेरे कारण अनेक दुःख सहे हैं। तब लक्ष्मी कृपण से कहती है कि" लच्छि कहे रे कृपण मूड हौं कदे न बोलों, को चला दुइ देइ गैज लागी तासु चालों । प्रथम चलण कु एहु देव देहुरे ठचिज्जैं । दूजै जान पति दागु चसंघहिं दिज्जैं, चल दुबे मंजिया ताहिवियोक्यौ चतौं। ส मरि जाइतु हो रही बहुडि न संगि थारे चर्छौं ।” मेरीदो बातें हैं उनमें से प्रथम तो देव मन्दिरों जु कवि की दूसरी कृति 'मेघमाला व्रत कथा' है । इस कथा की उपलब्धि भट्टारक हर्पकीर्ति अजमेर के शास्त्रभंडार के एक गुटके परसे हुई है । यह कथा ११५ कडवक, और २११ श्लोकोंके प्रमाण को लिये हुए हैं। इस ग्रन्थ की आदि अन्त प्रशस्ति में इस कथा के बनाने में प्रेरक, तथा कथा कहां बनाई वहाँ राजा और कथा के रचने का समय भी दिया हुआ है। इस ग्रन्थ की आदि प्रशस्ति में बतलाया है कि दुढाहड देशके मध्य में चम्पावती (जयपुर राज्यका वर्तमान चाटसु) नामकी एक नगरी है, जो उस समय धन-धान्यादि से विभूषित थी, और जिसके शासक राजा रामचंद्र जी थे, वहां भगवान पार्श्वनाथका एक जिनमन्दिर भी बना हुआ था, जिसमें तत्कालीन भट्टारक प्रभाचन्द्र गौतम गणधर के समान बैठे हुए थे, और जो नगर निवासी भव्यजनों को धर्मामृतका पान करा रहे थे । उनमें मल्लिदास नामक वणिक पुत्र ने कवि ठकुरसी से मेघमालाव्रत कथाके कहने की प्रेरणा की। उस समय चम्पावती नगरी में अन्य समाजांके साथ ग्वण्डेलवाल जाति के अनेक घर थे। जिनमें अजमेरा, और पहड्या गोत्रादि सज्जनों का निवास था, जो श्रावकोचित क्रियाओंका सदा अनुष्ठान करते रहते थे । वहाँ तोषक नामके एक विद्वान भीं रहते थे । श्रावकजनोंमें उस समय जीणा, ताल्हु, पारस, वाकुलीवाल, नेमिदास, नाथूसि, और भुल्लर आदि श्रावकोंने मेघमाला ग्रहण किये थे । यहाँ हाथुव शाह नामके एक महाजन भी रहते थे उनके और भट्टारक प्रभाचन्द के उपदेश से कवि ने मेघमाला व्रत को कब और कैसे करना चाहिये आदि पूरी विधिका उल्लेख करते

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