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५३. शिष्य की शोभा : विनय में प्रवृत्ति
२६२-२८२ शिष्य क्यों और किस उद्देश्य से २६२, भारत में प्राचीनकाल में तीन प्रकार के गुरु २६२, शिष्य बनने का मुख्य उद्देश्य, जीवन का निर्माण २६४; उपकारी गुरु के प्रति शिष्य का धर्म : समर्पण २६५, शिष्य स्वतः स्फुरणा से गुरु के प्रति विनीत बने २६५, जीवन विद्या कैसे और किससे प्राप्त हो सकती है ? २६६, गुरु का कठोर व्यवहार और विनीत शिष्य २७०, श्रद्धावान से ही सत्य की प्राप्ति होती है २७३, ऋषि उद्दालक द्वारा शिष्य शिखिध्वज को व्यावहारिक दृष्टान्तों से लोभ-त्याग की शिक्षा २७४, गुरु के ज्ञान का प्रकाश कौन और कैसे पा सकता है ? २७७, सुशिष्य के आठ गुण २७७, अविनीत को विपत्ति और विनीत को संपत्ति २७६, विनीत शिष्य क्या पाता है ? २८०, विनय : शिष्य के लिए बहुमूल्य आभूषण २८८, गुरु के प्रति विनय : कैसे और किस रूप में ? २८२, विनयसमाधि को प्राप्त करने
के चार प्रकार २८२ । ५४. ब्रह्मचारी विभूषारहित सोहता
२८३-२६९ यह सौन्दर्य पूजा : कितनी कृत्रिम, कितनी मँहगी ? २८३, यह बाह्य सौन्दर्य कितना क्षणभंगुर है २८७, स्थायी आकर्षण विभूषा में नहीं, शाश्वत सौन्दर्य में २८८, शाश्वत सौन्दर्य के उपासक को कृत्रिम सौन्दर्य की जरूरत नहीं २८८, ब्रह्मचारी को प्रदर्शन की क्या आवश्यकता ? २६१, वास्तविक व्यक्तित्व वेश भूषा और साज-सज्जा से प्रगट नहीं होता २६२, विभूषा से क्या लाभ क्या हानि ? २६३, विभूषा : न विकार दृष्टि से करें, न देखें २६६, वेश भूषा का भी मन
पर प्रभाव २६८, शील ही परम आभूषण है २६८ । ५५. दीमाधारी अकिंचन सोहता
३००-३२३ साधु की शोभा निस्पृहता है ३००, दीक्षाधारी : यथार्थ रूप में कौन है, कौन नहीं ? ३००, दीक्षा लेने के बाद त्यागी साधु पुनः परिग्रह के मोह में क्यों ? ३०२, दो बौद्ध भिक्षुओं का दृष्टान्त ३०३, अकिंचन बनकर भी पुनः परिग्रह के कीचड़ में ३०६, प्रतिष्ठा तजना कठिन ३०७; अकिंचनता में बाधक तत्व ३०७, आत्मा के साथ वस्तु का मेरापन जोड़ने से दुख ३०८, अकिंचन साधु स्थान को सराय समझता है ३०८, अकिंचन की तत्त्व दृष्टि ३१०, अकिंचनता के लिए आवश्यक गुण ३१४, पहला गुण-आत्म-सन्तोष ३१५, दूसरा गुणअपने शुद्ध आत्मा पर पूर्ण विश्वास ३१६, तीसरा गुण-अयाचक वृत्ति ३१७, चौथा गुण-निःस्पृहता ३१८, पाँचवाँ गुण-अपरिग्रहवृत्ति
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