Book Title: Anand Pravachan Part 10
Author(s): Anand Rushi, Shreechand Surana
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 19
________________ १५ उपाय : काम-भोगों का नाश और निर्ममत्व २०८, अप्रिय स्मृतियों को निकाल देना, प्रशम में सहायक २०८, प्रशम-युक्त व्यक्ति के लक्षण २०६, क्रोध न करना २०६, इष्टे वियोग अनिष्ट संयोग में शोक संताप न करना २१०, प्रतिकूल परिस्थिति में न खीजना २११, ईर्ष्या न करना २१२, फल-निरपेक्ष होकर कर्तव्य भावना से कार्य करना २१४, उच्च कोटि का प्रशमनिष्ठ साधक २१४, आत्मवत् सर्वभूतेषु की भावना २१४, प्रशमनिष्ठ की परीक्षा : समाधियोग से २१५, समाधियोग का स्वरूप २१५, समाधियोग का महत्व और उसके अर्थ २१७ । ५१. चारित्र को शोभा :ज्ञान और सुध्यान-१ २१६-२३७ चारित्र और उसका महत्व २१६, चारित्र ज्ञानरूपी भोजन के लिए विटामिन है २२१, चारित्र क्या है ? २२२, चारित्र की शोभा : कब, क्यों और किसमें ? २२३, ज्ञान और सुध्यान के अभाव में चारित्र की दशा २२४, साधनामय जीवन के लिए ज्ञान-ध्यान और चारित्र आवश्यक २२६, ज्ञान और सुध्यान के बिना साधक चारित्र से भ्रष्ट हो जाता है २२७, चारित्र का पौधा बढ़ता है, ज्ञानजल एवं सुध्यान रूपी खाद से २२६, मुनि सिद्धिचन्द्र और मुगल सम्राट जहाँगीर का दृष्टान्त २३०, मोक्षफल पाने के लिए चारित्र और ज्ञान के साथ सुध्यान का सहयोग आवश्यक २३५, त्रिविध तापनाश के लिए तीनों आवश्यक २३६, भवरोग निवारणार्थ चारित्र के साथ ज्ञान एवं सुध्यान आवश्यक २३६, आत्मा को प्रकाशमान करने के लिए २३७ । ५२. चारित्र की शोभा : ज्ञान और सुष्यान–२ २३८-२६१ चारित्ररूपी नौका के नाविक में ज्ञान और सुध्यान न हो तो २३८, ज्ञान के साथ सुध्यान न हो तो २४०, सुध्यान-बल हो, तभी ज्ञान और चारित्र दोनों सक्रिय २४३, सुध्यान के बिना आत्मदर्शन नहीं होते २४४, सुध्यान : ज्ञान को आत्मा में स्थिर रखने वाला २४७, ज्ञान और सुध्यान में खास अन्तर नहीं २४६, चारित्र का परममित्र सुध्यान : महत्व और लाभ २५०, ध्यान से ही लौकिक और आत्मिक सिद्धियों की प्राप्ति २५२, ध्यान के आठ हेतु २५३, ध्यान का स्वरूप : विविध लक्षणों में २५४, चित्त एकाग्रता भंग होने से सुध्यान टिकता नहीं२५५, चित्त की एकाग्रता की तीन प्रमुख बाधाएँ : स्मृति, कल्पना और वर्तमान की घटना २५५, सुध्यान और दुर्ध्यान : क्या और कहाँ ? २५७, ध्याता को समझने योग्य आठ बातें २५८, सुध्यान के साथ ज्ञान हो तो २५८, सम्यग्ज्ञान से हीन शिष्य चारित्रवान गुरू की साधना चौपट कर देते हैं-आचार्य पुष्यभूति का दृष्टान्त २५६ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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