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६ अमर-भारती ने जो सोचा, वह शास्त्र बना, जो बोला वह विधान बना और जिधर चल पड़े, वही जन जीवन की गन्तव्य दिशा बनी।
सन्त से पूछा गया-तेरा परिवार कौन है ? तेरा देश कौन है ? नपी तुली भाषा में उत्तर मिला। जन-जीवन ही मेरा परिवार है, मेरा समाज है। यह सम्पूर्ण संसार मेरा देश है, राष्ट्र है। आचार्य शंकर की वाणी में - "स्वदेशो भुवनत्रयम् ।" यह सम्पूर्ण सृष्टि हो सन्त का स्वदेश है। सन्त की समतामयी दृष्टि में सब अपने ही हैं, पराया कौन है उसे ? इतनी विराट दृष्टि लेकर चला था, भारतीय संस्कृति का सजग प्रहरी, सन्त समाज ।
___ भारतीय संस्कृति का यह एक महान् जय-घोष है, कि अतीत को भूलो मत । वर्तमान को मजबूत हाथों से पकड़ो और भविष्य की ओर तेज कदमों से बढ़े चलो। अतीत से प्रेरणा लो, वर्तमान से विचार-चिन्तन लो और भविष्य से आशा तथा विश्वास का सुनहरी सन्देश लो। हां, इस बात का जरा ध्यान रहे, कि आपके कदम वर्तमान से अतीत में न लौटें । उनमें गति है, तो भागे की ओर बढ़ें, भविष्य की ओर चलें। आचार्य जिनदत्त सूरी
सुबोध कालेज, जयपुर जयन्ती महोत्सव
३-७-५५
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