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व्यापारी जैसे हैं। किन्तु जो मनुष्य भव प्राप्त करके भी, नीच-पापक्रियाओं- कर्मभोगों में लिप्त रह कर नरक-तिर्यंच आदि दुर्गति पाने वाले हैं, वे उन व्यापारियों की तरह परमदुःखी हैं जो व्यापार में अपनी मूलपूंजी भी गंवा बैठते है। ऐसे लोग उन जुआरियों जैसे हैं जो दाव में काकिणी (कौड़ी की वस्तु) के लिए हजार सोने की मुहर हार जाते हैं।" कामभोग-सम्बन्धी भागदौड़, पारस्परिक ईर्ष्या उनके विनाश का कारण बनती है। जैसे गीध पक्षियों पर और गरुड़ सों पर टूट पड़ता है और उन्हें मार डालता है, वैसे ही कामभोग-सम्बन्धी मनोभाव जीव को दुर्गतिरूप संसार में ढकेल कर उसकी विनाशयात्रा का मार्ग प्रशस्त करते हैं।20 इसी चिन्तन के परिप्रेक्ष्य में इस संसार को दुःखस्थली और 'अनन्त दुःखसागर' की तरह दुस्तरणीय बताया गया है।21
संसार-चक्र की दुरन्तता व दुस्तरता को इंगित करने के लिए जैन परम्परा में संसार-परिवर्तन को पांच प्रकारों में वर्गीकृत कर समझाया गया है। ये 5 प्रकार हैंद्रव्यपरिवर्तन, क्षेत्रपरिवर्तन, काल-परिवर्तन, भाव-परिवर्तन और भव-परिवर्तन।22 इन परिवर्तनों के निरूपण से यह स्पष्ट होता है कि संसार का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं बचा है जहां प्रत्येक जीव ने जन्म न लिया हो,23 ऐसा कोई भौतिक कर्म-परमाणु नहीं है जिसे उसने कर्मरूप में परिणत नहीं किया हो। कहने का सार यह है कि हम अनन्त बार जन्मे और मरे हैं। इस निरन्तर संसार-परिभ्रमण का कारण हमारी अपनी 'क्रिया' है, और कोई नहीं।
प्राय: सभी आस्तिक अध्यात्म-दर्शनों का निष्कर्ष यह है कि इस संसार में सुखदुःखदायी सुगति-दुर्गतियों में जीव द्वारा की गई क्रियाएं- किये गये शुभाशुभ कर्म ही कारण हैं,24 कर्मों की शुभाशुभता के पीछे दृष्टिकोण मुख्य हेतु है,5 इस संसरणक्रियाचक्र से छूटने का उपाय 'निष्कर्म' होना है और निष्कर्मता (अक्रियता) की स्थिति के लिए पुण्य-पाप- इन दोनों प्रकार के कर्मों का क्षय अपेक्षित है।26 इस संसार-चक्र से अस्पृष्ट कोई है तो वही है जो परम ज्ञानादिक्रिया-सम्पन्न होते हुए भी निष्कल, निष्क्रिय है और इस समस्त संसार का साक्षी (ज्ञाता-द्रष्टा) है।27 भारतीय दर्शनों में क्रिया-सम्बन्धी विविध निरूपण
सभी दर्शनों में, चाहे वे आस्तिक दर्शन हों या नास्तिक, 'क्रिया' का निरूपण हुआ ही है। चार्वाक जैसे नास्तिक दर्शन में भी 'खाओ, पीओ, मौज करो' की क्रिया का उपदेश दिया गया है। शेष भारतीय दर्शनों में, जो पुनर्जन्म, परलोक आदि का अस्तित्व मानते हैं, आचारमीमांसा के संदर्भ में, परम पुरुषार्थ 'मोक्ष' की प्राप्ति में 'क्रिया' की
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