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जन्मान्तर वाले जीवन में भी पूर्ववत् क्रियाशीलता के कारण शुभाशुभ कर्मों का उपार्जन भी चलता रहता है, अत: जन्म-जन्मान्तरण, जन्म-मरण-पुनर्जन्म आदि की प्रक्रिया निरन्तर प्रवर्तमान रहती है। दुःख व अशांति के जीवन का कारण- 'क्रिया'
निष्कर्ष यह है कि जीव-अजीव की क्रीडास्थली 'संसार' निरन्तर भागदौड, गतिशीलता, सक्रियता के कारण निरन्तर अशान्त दृष्टिगोचर होता है। किसी संसारी जीव को वास्तविक सुख-शांति का अनुभव नहीं हो पाता। संसार के उक्त स्वरूप को महर्षि वेदव्यास ने एक सुन्दर दृष्टान्त के माध्यम से समझाया है :
यथा वस्तूनि पण्यानि हेमादीनि ततस्ततः। पर्यटन्ति नरेष्वेवं जीवो योनिषु कर्तृषु।। (भागवत- 6/16/6)
अर्थात् जैसे किसी व्यापारिक मण्डी में जहां सोने-चाँदी से लेकर सामान्य जीवनोपयोगी वस्तुओं का थोक या खुदरा व्यापार होता हो- बेचे जाने वाली या खरीदे जाने वाली वस्तुएं इधर से उधर लाई-ले जाई जाती रहती हैं, वैसे ही जीव विविध योनियों में, यहां से वहां निरन्तर-भ्रमण कर रहे हैं। या कराये जा रहे हैं बाजार में निरन्तर हलचल, भागदौड़, गमनागमन से एक अशांत-तनावपूर्ण वातावरण रहता है। व्यापारिक प्रतिस्पर्धा में विक्रेता व्यापारी अपनी वस्तु को अधिकाधिक लाभ में बेचना चाहते हैं तो खरीददार अधिकाधिक सस्ते दामों में अच्छी से अच्छी वस्तु, वह भी जांच परख कर खरीदना चाहता है। सर्वत्र तनाव रहता है, भीड़ में सबसे जल्दी अपना काम पूरा करने की भागदौड़ रहती है, असन्तोष, लोभ तथा प्रतिस्पर्धात्मक मानसिक व्यग्रता रहती है। इसी तरह, इस संसार में प्रत्येक व्यक्ति कामभोगों को अधिकाधिक खरीदने-हस्तगत करने की प्रतिस्पर्धा में तनावग्रस्त व अशांत सक्रिय जीवन जी रहा है, विश्रान्ति-शांति कभी नहीं प्राप्त करता है। ___ जैन परम्परा में भी इस जीव-लोक को व्यापारी दृष्टि से वर्णित करते हुए कहा गया है कि इन जीवों में तीन तरह के व्यापारी हैं। एक तो वे जो किसी तरह मूल पूंजी बचा पाते हैं, और दूसरे वे जो अपनी मूल पूंजी बचाते हुए अधिकाधिक लाभ कमाते हैं, तीसरे वे जो लाभ तो क्या, अपनी मूल पूंजी भी गवां देते हैं। लाभ कमाने वाले जीव वे हैं जो मनुष्य भव प्राप्त कर देवगति का लाभ पाने में सफल होते हैं। जो मनुष्य भव प्राप्त कर मनुष्य योनि में जाने का कर्म-उपार्जित करते हैं, वे मूलधन सुरक्षित रख पाने वाले