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तिशील है और वह स्वयं घूमती हुई सूर्य का चक्कर लगाती रहती है। इसी के फलस्वरूप दिन-रात, ऋतु परिवर्तन आदि घटनाएं अनुभव - प्रत्यक्ष होती हैं। प्रत्येक पदार्थ की अपनी स्वाभाविक 'क्रिया' है, उसकी अपनी एक रचना-प्रक्रिया है, अन्य पदार्थों के सम्पर्क में उसकी विशेष प्रतिक्रिया या उदासीनता होती है। प्रत्येक पदार्थ विशेष परिस्थिति में विशेष विक्रिया (विकार या परिणति ) से गुजरता है। इन्हीं पदार्थीय रचना-प्रक्रिया, क्रिया-प्रतिक्रिया-विक्रिया (विकार) आदि के अनुसन्धान व अध्ययन से अनेक वैज्ञानिक आविष्कार हुए हैं और होते रहेंगे जो भौतिक सभ्यता व सामान्य जन-जीवन को अत्यधिक प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं।
भारतीय दार्शनिक विचारधारा की दृष्टि से विचार करें तो इस समस्त संसार की प्रमुख विशेषता ही है इसकी संसरणक्रिया । 'संसार' व 'जगत्' शब्दों की नियुक्ति भी इस तथ्य को पुष्ट करती है । निरन्तर जिसमें संसरणशीलता, क्रियाशीलता है, गतिशीलता है, वह 'संसार' है या 'जगत्' है। 12
संसार के घटक तत्त्व हैं अजीव (जड़, भौतिक) और जीव (चेतन) पदार्थ। इन दोनों में भी 'जीव' प्रमुख है, क्योंकि वह भोक्ता है और शेष पदार्थ (जड़) भोग्य । अजीव (जड़) पदार्थों में से ही कुछ से जीव के शरीर, इन्द्रिय आदि का निर्माण होता है और उसी के सहारे जीव की गतिशीलता सक्रियता नये-नये आयाम लेती है । इसी दृष्टि से जीव को रथी और शरीर को रथ की या जीव को नाविक की और शरीर को नाव की उपमा दी गई है। 13 संसारी जीव अपने सम्पर्क में आए, अजीव पदार्थों के प्रति या अन्य जीवों के प्रति, अपने अच्छे-बुरे भावों से अच्छी या बुरी क्रिया करता है। इस क्रिया के पीछे उसका अज्ञान व मोह प्रमुख कारण होता है । 14
यद्यपि सांसारिक पदार्थ स्वप्नवत् अनित्य-विनाशी होते हैं, तथापि इन पदार्थों को स्थायी व सुखदायी समझ कर किये गये मानसिक सद्भाव या असद्भाव जीव को क्रियाशील करते हैं और जीव के संसार भ्रमण के कारण होते हैं। 15
उस क्रिया की प्रतिक्रियास्वरूप एक सूक्ष्म कर्मचक्र निर्मित होता है और यहीं से शुभाशुभ कर्म - बन्धन की प्रक्रिया चलती चली जाती है।" इस शुभाशुभ कर्म चक्र के आधार पर जीव के भावी सुख - दुःखात्मक जीवन की दिशा निर्धारित होती है। फलस्वरूप, उपार्जित कर्मों के अनुरूप, मरण के बाद भी, सद्गति या दुर्गति प्राप्त होती है, अपने क्रियागुणों आदि के अनुरूप जीव स्थूल सूक्ष्म रूप धारण करने को बाध्य होता है। 17
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