________________
जाए और जो तेरापंथी हैं उनके लिए आचार्य भिक्षु की वाणी प्रस्तुत की जाए । इस भित्ति पर 'अहिंसा तत्त्व दर्शन' के दो खण्ड बन गए । अहिंसा कोरा विचार नहीं है । मूलत: वह आचार है । आचार के साथ उतना न्याय नहीं होता जितना विचार के साथ होता है । विचार से अधिक यदि आचार न हो तो कम-से-कम इतना अवश्य हो कि विचार से कम आचार न हो । तीसरा खण्ड आचार-पक्ष से सम्बन्धित है । इस दृष्टि से यह पुस्तक अपने आप में पूर्ण है । पूर्ण का अर्थ यह नहीं कि अपूर्ण नहीं है । अहिंसा जैसे विषय को शब्दों की पूर्णता कब कैसे प्राप्त हो सकती है ? इस ग्रन्थ में ऐतिहासिक दृष्टि से विश्लेषण करना अपेक्षित था पर इसका निर्माण अकल्पित ही हुआ । आचार्यश्री ने एक निबन्ध लिखने को कहा था, निबन्ध कुछ बड़ा हो गया। सहज ही कल्पना आगे बढ़ी और एक ग्रन्थ बन गया। छह वर्ष पहले ही यह सम्पन्न हो गया था। दूसरे- दूसरे कार्यों में व्यस्त रहा, इसलिए ऐतिहासिक दृष्टि से विश्लेषण करने की इच्छा को अभी भी मैं अपने
संजोए हुए हूं ।
आचार्यश्री की प्रेरणा के प्रति मन में जो कृतज्ञता का भाव है, वह शब्दों की पकड़ से परे है ।
अहिंसा का समुद्र महान् है । उसमें मिल यह ग्रन्थ- बिन्दु भी अपने आपको अमित पाएगा ।
२०१७ श्रावण शुक्ला १३ बाल निकेतन, राजसमंद उदयपुर (मेवाड़)
द्वितीय संस्करण
1
'अहिंसा तत्त्व दर्शन' का द्वितीय संस्करण सचमुच नया संस्करण है । प्रथम संस्करण में सामग्री का चयन प्रमुख था, गुम्फन गौण । फूलों के चयन में वह सुषमा नहीं होती, जो उनके गुम्फन में होती है । माला में जो क्रमबद्ध विन्यास होता है, वही इस संस्करण में किया गया है । विचारों की क्रमबद्धता और नए गुम्फन के कारण प्रस्तुत संस्करण पाठक को नए ग्रन्थ जैसा ही लगेगा ।
तेरापंथ भवन,
मद्रास - १
१० सितम्बर, १९६८
Jain Education International
( मुनि नथमल )
For Private & Personal Use Only
- युवाचार्य महाप्रज्ञ
www.jainelibrary.org