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साथ काल और देश भी अवश्य साधारण कारण होते हैं। अतएव काल और क्षेत्र पर्यायों के कारण होने से यदि पर्यायों में समाविष्ट कर लिए जाएँ तो मूल रूप से दो दृष्टियाँ ही रह जाती हैं—द्रव्यप्रधान दृष्टि द्रव्यार्थिक और पर्याय- प्रधान दृष्टि — पर्यायार्थिक । पर्यायार्थिक नय के लिए आगमों में प्रदेशार्थिक शब्द का प्रयोग भी किया गया है। एक अन्य प्रकार से भी नयों का विभाजन किया गया है— निश्चयनय और व्यवहारनय। जो दृष्टि स्व-आश्रित होती है, जिसमें पर की अपेक्षा नहीं रहती, वह निश्चय है और जो दृष्टि पर आश्रित होती है, जिसमें पर की अपेक्षा रहती है, वह व्यवहारनय। नय एक प्रकार का विशेष दृष्टिकोण है, विचार करने की पद्धति है और अनेकान्तवाद का मूल आधार है। आगमों में न्याय - शास्त्र समस्त वाद, कथा एवं विवाद आदि का भी यथाप्रसंग वर्णन आता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि मूल आगमों में और उसके निकटवर्ती व्याख्या साहित्य में भी यथाप्रसंग जैन दर्शन के मूल तत्त्वों का निरूपण, विवेचन और विश्लेषण किया है।
नन्दीसूत्र का विषय
नन्दी और अनुयोगद्वार चूलिकासूत्र कहलाते हैं। चूलिका शब्द का प्रयोग उस अध्ययन अथवा ग्रन्थ के लिए होता है जिसमें अवशिष्ट विषयों का वर्णन अथवा वर्णित विषयों का स्पष्टीकरण किया जाता है। दशवैकालिक और महानिशीथ के सम्बन्ध में इस प्रकार की चूलिकाएँ चूलाएँ— चूड़ाएँ उपलब्ध हैं। इनमें मूल ग्रन्थ के प्रयोजन अथवा विषय को दृष्टि में रखते हुए ऐसी कुछ आवश्यक बातों पर प्रकाश डाला गया है जिनका समावेश आचार्य ग्रन्थ के किसी अध्ययन में न कर सके। आजकल इस प्रकार का कार्य पुस्तक के अन्त में परिशिष्ट जोड़कर सम्पन्न किया जाता है। नन्दी और अनुयोगद्वार भी आगमों के लिए परिशिष्ट का ही कार्य करते हैं। इतना ही नहीं, आगमों के अध्ययन के लिए ये भूमिका का भी काम देते हैं। यह कथन नन्दी की अपेक्षा अनुयोगद्वार के विषय में अधिक सत्य है। नन्दी में तो केवल ज्ञान का ही विवेचन किया गया है, जबकि अनुयोगद्वार में आवश्यक सूत्र की व्याख्या के बहाने समग्र आगम की व्याख्या अभीष्ट है। अतएव उसमें प्रायः आगमों के समस्त मूलभूत सिद्धान्तों का स्वरूप समझाते हुए विशिष्ट. पारिभाषिक शब्दों का स्पष्टीकरण किया गया है जिनका ज्ञान आगमों के अध्ययन के लिए आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है । अनुयोगद्वारसूत्र समझ लेने के पश्चात् शायद ही कोई आगमिक परिभाषा ऐसी नहीं रह जाती है जिसे समझने में जिज्ञासु पाठक को कठिनाई का सामना करना पड़े। यह चूलिका सूत्र होते हुए भी एक प्रकार से समस्त आगमों की अगम ज्ञान की नींव है और इसीलिये अपेक्षाकृत कठिन भी है।
नन्दीसूत्र में पंचज्ञान का विस्तार से वर्णन किया गया है। नियुक्तिकार आदि आचार्यों ने नन्दी शब्द को ज्ञान का ही पर्याय माना है सूत्रकार ने सर्वप्रथम ५० गाथाओं में मंगलाचरण किया है। तदनन्तर सूत्र के मूल विषय आभिनिबोधिक आदि पाँच प्रकार के ज्ञान की चर्चा प्रारम्भ की है। पहले आचार्य ने ज्ञान के पाँच भेद किये हैं। तदनन्तर प्रकारान्तर से प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप दो भेद किये हैं। प्रत्यक्ष में इन्द्रियप्रत्यक्ष और नोइन्द्रियप्रत्यक्ष के रूप में पुनः दो भेद किये हैं। इन्द्रियप्रत्यक्ष में पांच भेद किये हैं और उसमें पाँच प्रकार की इन्द्रियों से होने वाले ज्ञान का समावेश है। इस प्रकार के ज्ञान को जैन न्यायशास्त्र में सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा जाता है। नोइन्द्रियप्रत्यक्ष में अवधि, मन:पर्यय एवं केवलज्ञान का समावेश है परोक्ष ज्ञान दो प्रकार का है— आभिनिबोधिक और श्रुत आभिनिबोधिक को मति भी
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