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मतिज्ञान]
[१५३ के द्योतक हैं। अत: 'पासइ' पद ठीक ही है। किन्तु नन्दीसूत्र के वृत्तिकार लिखते हैं कि 'न पासइ' से यह अभिप्राय है कि धर्मास्तिकायादि द्रव्यों के सर्व पर्याय आदि को नहीं देखता। वास्तव में दोनों ही अर्थ संगत हैं।
क्षेत्रतः—मतिज्ञानी आदेश से सभी लोकालोक क्षेत्र को जानता है, किन्तु देखता नहीं। कालतः मतिज्ञानी आदेश से सभी काल को जानता है, किन्तु देखता नहीं। भावतः आभिनिबोधिकज्ञानी आदेश से सभी भावों को जानता है, किन्तु देखता नहीं।
आभिनिबोधिक ज्ञान का उपसंहार ६६. उग्गह ईहाऽवाओ य, धारणा एवं हुंति चत्तारि ।
आभिणिबोहियनाणस्स, भेयवत्थू समासेणं ॥ ६६—आभिनिबोधिक-मतिज्ञान के संक्षेप में अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा क्रम से ये चार भेदवस्तु विकल्प होते हैं।
६७. अत्थाणं उग्गहणम्मि, उग्गहो तह वियालणे ईहा ।
ववसायम्मि अवाओ, धरणं पुण धारणं बिंति ॥ ६७—अर्थों के अवग्रहण को अवग्रह, अर्थों के पर्यालोचन को ईहा, अर्थों के निर्णयात्मक ज्ञान को अवाय और उपयोग की अविच्युति, वासना तथा स्मृति को धारणा कहते हैं।
६८. उग्गह इक्कं समयं, ईहावाया मुहूत्तमद्धं तु ।
कालमसंखं संखं च, धारणा होई नायव्वा ॥ ६८–अवग्रह अर्थात् नैश्चयिक अवग्रह ज्ञान का काल एक समय, ईहा और अवाय ज्ञान का समय अर्द्धमुहूर्त (अन्तर्मुहूर्त) तथा धारणा का काल-परिमाण संख्यात व असंख्यात काल पर्यन्त समझना चाहिये।
६९. पुढे सुणेइ सइं, रूवं पुण पासइ अपुढे तु ।
गंधं रसं च फासं च, बद्ध पुटुं वियागरे ॥ ६९–श्रोत्रेन्द्रिय के साथ स्पष्ट होने पर ही शब्द सुना जाता है, किन्तु नेत्र रूप को बिना स्पृष्ट .. हुए ही देखते हैं। यहाँ 'तु' शब्द का प्रयोग एवकार के अर्थ में है, इससे चक्षुरिन्द्रिय को अप्राप्यकारी सिद्ध किया गया है। घ्राण, रसन और स्पर्शन इन्द्रियों से बद्धस्पृष्ट हुये—प्रगाढ सम्बन्ध को प्राप्त पुद्गल अर्थात् गन्ध, रस और स्पर्श जाने जाते हैं।
७०. भासा-समसेढीओ, सदं जं सुणइ मीसियं सुणइ ।
वीसेणी पुण सदं, सुणेइ नियमा पराघाए ॥