Book Title: Agam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Author(s): Devvachak, Madhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 200
________________ श्रुतज्ञान ] [ १६५ भरे रहते हैं, इसी प्रकार गणाधीश आचार्य के यहाँ आत्मकल्याण के हेतु विविध प्रकार की शिक्षाएँ, नव-तत्त्वनिरूपण, द्रव्यों का विवेचन, धर्म की व्याख्या, आत्मवाद, क्रियावाद, कर्मवाद, लोकवाद, प्रमाणवाद, नयवाद, स्याद्वाद, अनेकान्तवाद, पंचमहाव्रत, तीर्थंकर बनने के उपाय, सिद्ध भगवन्तों का निरूपण, तप का विवेचन, कर्मग्रन्थि भेदन के उपाय, चक्रवर्ती, वासुदेव, प्रतिवासुदेव के इतिहास तथा रत्नत्रय आदि का विश्लेषण आदि अनेक विषयों का जिनमें यथार्थ निरूपण किया गया है, ऐसी भगवद्वाणी को गणधरों ने बारह पिटकों में भर दिया है। जिस पिटक का जैसा नाम है, उसमें वैसे सम्यक् श्रुतरत्न निहित हैं । पिटकों के नाम द्वादशाङ्गरूप में ऊपर बताए गए हैं। अब प्रश्न होता है कि अरिहन्त भगवन्तों के अतिरिक्त जो अन्य श्रुतज्ञानी हैं, वे भी क्या आप्त पुरुष हो सकते हैं ? उत्तर है— हो सकते हैं । सम्पूर्ण दस पूर्वधर से लेकर चौदह पूर्वी तक के धारक जितने भी ज्ञानी हैं उनका कथन नियम से सम्यक् श्रुत ही होता है। किंचित् न्यून दस पूर्व में सम्यक् श्रुत की भजना है, अर्थात् उनका श्रुत सम्यक् श्रुत भी हो सकता है और मिथ्या श्रुत भी । मिथ्यादृष्टि जीव भी पूर्वों का अध्ययन कर सकते हैं, किन्तु वे अधिक से अधिक कुछ कम दस पूर्वो का ही अध्ययन कर सकते हैं, क्योंकि उनका स्वभाव ऐसा ही होता है। सारांश यह है कि चौदह पूर्व से लेकर परिपूर्ण दस पूर्वों के ज्ञानी निश्चय ही सम्यक्दृष्टि होते हैं। अतः उनका श्रुत सम्यक्श्रुत ही होता है। वे आप्त ही हैं। शेष अङ्गधरों या पूर्वधरों में सम्यक् श्रुत नियमेन नहीं होता । सम्यक्दृष्टि का प्रवचन ही सम्यक् श्रुत हो सकता है। मिथ्याश्रुत • ७७ से किं तं मिच्छासुअं ? " मिच्छासुअं, जं इमं अण्णाणिएहिं मिच्छादिट्ठिएहिं, सच्छंदबुद्धि-मइविगप्पिअं तं जहा (१) भारहं ( २ ) रामायणं (३) भीमासुरक्खं (४) कोडिल्लयं (५) सगडभद्दिआओ (६) खोडग (घोडग) मुहं (७) कप्पासिअं (८) नागसुहुमं (९) कणगसत्तरी (१०) वइसेसिअं (११) बुद्धवयणं (१२) तेरासिअं (१३) काविलिअं (१४) लोगाययं (१५) सट्ठितंतं (१६) माढरं (१७) पुराणं (१८) वागरणं (१९) भागवं (२०) पायंजली (२१) पुस्सदेवयं (२२) लेहं (२३) गणिअं (२४) सउणिरुअं (२५) नाडयाई । अहवा बावत्तरि कलाओ, चत्तारि अ वेआ संगोवंगा, एआई मिच्छदिट्ठिस्स मिच्छत्तपरिग्गहिआई मिच्छा-सुअं एयाई चेव सम्मदिट्ठिस्स सम्मत्तपरिग्गहिआई सम्मसुअं । अहवा मिच्छादिट्ठिस्सवि एयाइं चेव सम्मसुअं, कम्हा ? सम्मत्तहेउत्तणओ, जम्हा ते मिच्छदिट्टिआ तेहिं चेव समएहिं चोइआ समाणा केइ सपक्खदिट्ठीओ चयंति । सेत्तं मिच्छा-सुअं । ॥ सूत्र ४२ ॥

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