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[ नन्दीसूत्र
७७ मिथ्या श्रुत का स्वरूप क्या है ?
मिथ्या श्रुत अज्ञानी एवं मिथ्यादृष्टियों द्वारा स्वच्छंद और विपरीत बुद्धि द्वारा कल्पित किये हुए
यथा
ग्रन्थ हैं,
(१) भारत ( २ ) रामायण (३) भीमासुरोक्त (४) कौटिल्य (५) शकटभद्रिका (६) घोटकमुख (७) कार्पासिक (८) नाग - सूक्ष्म (९) कनकसप्तति (१०) वैशेषिक (११) बुद्धवचन (१२) त्रैराशिक (१३) कापिलीय (१४) लोकायत (१५) षष्टितंत्र (१६) माठर (१७) पुराण (१८) व्याकरण (१९) भागवत (२०) पातञ्जलि (२१) पुष्यदैवत (२२) लेख (२३) गणित (२४) शकुनिरुत (२५) नाटक । अथवा बहत्तर कलाएं और चार वेद अंगोपाङ्ग सहित । ये सभी मिथ्यादृष्टि के लिए मिथ्यारूप में ग्रहण किये हुए मिथ्याश्रुत हैं । यही ग्रन्थ सम्यक्दृष्टि द्वारा सम्यक् रूप में ग्रहण किए हुए सम्यक् - श्रुत हैं ।
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अथवा मिथ्यादृष्टि के लिए भी यही ग्रन्थ - शास्त्र सम्यक् श्रुत हैं, क्योंकि ये उनके सम्यक्त्व में हेतु हो सकते हैं, कई मिथ्यादृष्टि इन ग्रन्थों से प्रेरित होकर अपने मिथ्यात्व को त्याग देते 1 यह मिथ्या श्रुत का स्वरूप है।
विवेचन प्रस्तुत सूत्र में मिथ्याश्रुत के विषय में बताया गया है कि अज्ञानी, विपरीत बुद्धिवाले एवं स्वच्छंद मतिवाले व्यक्ति अपनी कल्पना से जो विचार लोगों के सामने रखते हैं वे विचार तात्त्विक न होने से मिथ्याश्रुत कहलाते हैं । दूसरे शब्दों में, जिनकी दृष्टि या विचार-धारा 1. मिथ्या है, उन्हें मिथ्यादृष्टि कहते हैं । मिथ्यात्व दस प्रकार का होता है, किन्तु ध्यान में रखने की बात है कि यदि किसी प्राणी में एक प्रकार का भी मिथ्यात्व हो तो उसे मिथ्यादृष्टि ही मानना चाहिये। मिथ्यात्व के प्रकार इस तरह हैं—
(१) अधम्मे धम्मसण्णा —– अर्थात् अधर्म को धर्म मानना । जैसे—– विभिन्न देवी-देवताओं के, ईश्वर के तथा पितर आदि के नाम पर हिंसा आदि पाप-कृत्य करना और उसमें धर्म मानना । (२) धम्मे अधम्मसण्णा आत्म शुद्धि के मुख्य कारण— अहिंसा, संयम, तप तथा ज्ञान, दर्शन एवं चारित्ररूप रत्नत्रय धर्म को अधर्म मानना मिथ्यात्व है।
(३) उम्मग्गे मग्गसण्णा — उन्मार्ग को सन्मार्ग मानना, अर्थात् संसार - भ्रमण कराने वाले दुःखद मार्ग को मोक्ष का मार्ग समझना मिथ्यात्व है।
( ४ ) मग्गे उम्मग्गसण्णा - " सम्यग्दर्शनज्ञानचारिणि मोक्षमार्गः " इस उत्तम मोक्षमार्ग को संसार का मार्ग समझना मिथ्यात्व है ।
(५) अजीवेसु जीवसण्णा — अजीवों को जीव मानना । संसार में जो कुछ भी दृश्यमान है, वह सब जीव ही है, संसार में अजीव पदार्थ हैं ही नहीं, यह मान्यता रखना मिथ्यात्व है।
(६) जीवेसु अजीवसण्णा— जीवों में अजीव की संज्ञा रखना । चार्वाक मत के अनुयायी शरीर से भिन्न आत्मा के अस्तित्व को नहीं मानते। कुछ विचारक पशुओं में भी आत्मा होने से इंकार