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श्रुतज्ञान]
[१७१ जितने रूपी द्रव्य हैं, उनकी गुरुलघु और अरूपी द्रव्यों की अगुरुलघु पर्याय हैं। उन सभी को केवलज्ञानी हस्तामलकवत् जानते व देखते हैं। सारांश यह कि सर्वद्रव्य, सर्वपर्याय-परिमाण केवलज्ञान उत्पन्न होता है।
गमिक-अगमिक,अङ्गप्रविष्ट-अङ्गबाह्य ७९–से किं तं गमिअं? गमिअं दिट्ठिवाओ।से किं तं अगमिअं? अगमिअं-कालिअसुअं। से त्तं गमिअं से तं अगमि। अहवा तं समासओ दुविहं पण्णत्तं, तं जहा—अंगपविलु, अंगबाहिरं च।
से किं तं अंगबाहिरं? अंगबाहिरं दुविहं पण्णत्तं, तं जहा आवस्सयं च आवस्सयवइरित्तं च।
(१) से किं तं आवस्सयं ? आवस्सयं छव्विहं पण्णत्तं तं जहा (१) सामाइयं (२) चउवीसत्थवो (३) वंदणयं (४) पडिक्कमणं (५) काउस्सग्गो (६) पच्चक्खाणं।
से त्तं आवस्सयं। ७९-गमिक-श्रुत क्या है ?
आदि, मध्य या अवसान में कुछ शब्द-भेद के साथ उसी सूत्र को बार-बार कहना गमिकश्रुत है। दृष्टिवाद गमिक-श्रुत है।
अगमिक-श्रुत क्या है? गमिक से भिन्न आचाराङ्ग आदि कालिकश्रुत अगमिक-श्रुत हैं। इस प्रकार गमिक और अगमिकश्रुत का स्वरूप है।
अथवा श्रुत संक्षेप में दो प्रकार का कहा गया है अङ्गप्रविष्ट और अङ्गबाह्य।
अङ्गबाह्य-श्रुत कितने प्रकार का है? अङ्गबाह्य दो प्रकार का है—(१) आवश्यक (२) आवश्यक से भिन्न।
आवश्यक-श्रुत क्या है? आवश्यक-श्रुत छह प्रकार का है-(१) सामायिक (२) चतुर्विंशतिस्तव (३) वंदना (४) प्रतिक्रमण (५) कायोत्सर्ग (६) प्रत्याख्यान। यह आवश्यक-श्रुत का वर्णन है।
विवेचन—उक्त सूत्र में गमिक-श्रुत, अगमिक-श्रुत, अङ्गप्रविष्ट-श्रुत और अङ्गबाह्य-श्रुत का वर्णन किया गया है।
__गमिकश्रुत—जिस श्रुत के आदि, मध्य और अन्त में थोड़ी विशेषता के साथ पुनः पुनः उन्हीं शब्दों का उच्चारण होता हो। जैसे—उत्तराध्ययन सूत्र के दसवें अध्ययन में "समयं गोयम! मा पमायए" यह प्रत्येक गाथा के चौथे चरण में दिया गया है।
चूर्णिकार ने भी गमिक-श्रुत के विषय में कहा है"आई मझेऽवसाणे वा किंचिविसेसजुत्तं, दुगाइसयग्गसो तमेव, पढिज्जमाणं गमियं