Book Title: Agam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Author(s): Devvachak, Madhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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२०८]
[नन्दीसूत्र विवेचन–विप्रजहत्श्रेणिका का संस्कृत में 'विप्रजहच्छेणिका' शब्द-रूपान्तर होता है। विश्व में जितने भी हेय यानी परित्याज्यं पदार्थ हैं, उनका इसी में अन्तर्भाव हो जाता है। प्रत्येक साधक की अपनी जीवन-भूमिका औरों से भिन्न होती है अतः अवगुण भी भिन्न-भिन्न होते हैं। इसलिए जिसकी जैसी भूमिका हो उसके अनुसार साधक के लिए वैसे ही दोष एवं क्रियाएं परित्याज्य हैं। उदाहरण स्वरूप आयुर्वेदिक ग्रन्थों में जैसे भिन्न-भिन्न रोगों से ग्रस्त रोगियों के लिए कुपथ्य भिन्नभिन्न होते हैं, इसी प्रकार साधकों को भी जैसी-जैसी दोष-रुग्णता हो, उनके लिए वैसी-वैसी अकल्याणकारी कियाएँ हेय या परित्याज्य होती हैं। इस परिकर्म में इन्हीं सबका विस्तार से वर्णन हो, ऐसी सम्भावना है।
७.च्युताऽच्युतश्रेणिका परिकर्म . १०४ से किं तं चुआचुअसेणिआ परिकम्मे ?
चुआचुअसेणिआपरिकम्मे, एक्कारसविहे पन्नत्ते, तं जहा (१) पाढोआगासपयाई, (२) केउभूउं (३) रासिबद्धं, (४) एगगुणं, (५) दुगुणं, (६) तिगुणं, (७) केउभूअं (८) पडिग्गहो, (९) संसारपडिग्गहो, (१०) नंदावत्तं, (११) चुआचुआवत्तं, से तं चुआचुअसेणिआ परिकम्मे। छ चउक्क नइआइं, सत्त तेरासियाई। से त्तं परिकम्मे।
१०४—वह च्युताच्युतश्रेणिका-परिकर्म कितने प्रकार का है ? वह ग्यारह प्रकार का है, यथा
(१) पृथगाकाशपद, (२) केतुभूत, (३) राशिबद्ध, (४) एकगुण, (५) द्विगुण, (६) त्रिगुण, (७) केतुभूत, (८) प्रतिग्रह, (९) संसारप्रतिग्रह, (१०) नन्दावर्त, (११) च्युताच्युतवर्त, यह च्युताच्युतश्रेणिका परिकर्म सम्पूर्ण हुआ।
उल्लिखित परिकर्म के ग्यारह भेदों में से प्रारम्भ के छह परिकर्म चार नयों के आश्रित हैं और अन्तिम सात में त्रैराशिक मत का दिग्दर्शन कराया गया है। इस प्रकार यह परिकर्म का विषय हुआ।
विवेचन इस सूत्र में परिकर्म के सातवें और अन्तिम भेद च्युताच्युतश्रेणिका-परिकर्म का वर्णन किया गया है यद्यपि इसमें रहे हुए वास्तविक विषय और उसके अर्थ के बारे में निश्चयपूर्वक कुछ कहा नहीं जा सकता, क्योंकि श्रुत व्यवच्छिन्न हो गया है, फिर भी इसमें त्रैराशिक मत का विस्तृत वर्णन होना चाहिए।
जैसे स्वसमय में सम्यक्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, मिश्रदृष्टि एवं संयत, असंयत और संयतासंयत, सर्वाराधक, सर्वविराधक तथा देश आराधक-विराधक की परिगणना की गई है, वैसे ही हो सकता है कि त्रैराशिक मत में अच्युत, च्युत तथा च्युताच्युत शब्द प्रचलित हो। टीकाकार ने उल्लेख किया है पूर्वकालिक आचार्य तीन राशियों का अवलम्बन करके वस्तुविचार करते थे। जैसे द्रव्यास्तिक, पर्यायास्तिक और उभयास्तिक। एक त्रैराशिक मत भी था जो दो राशियों के बदले एकान्त रूप में
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