Book Title: Agam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Author(s): Devvachak, Madhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 213
________________ १७८] [नन्दीसूत्र अनन्त गम और अनन्त पर्यायें हैं। परिमित त्रस और अनन्त स्थावर जीवों का वर्णन है। शाश्वतधमास्तिकाय आदि, कृत-प्रयोगज-घटादि, विश्रसा-स्वाभाविक-सन्ध्या, बादलों आदि का रंग ये सभी आचारांग सूत्र में स्वरूप से वर्णित हैं। नियुक्ति, संग्रहणी, हेतु, उदाहरण आदि अनेक प्रकार से जिन-प्रज्ञप्त भाव-पदार्थ, सामान्य रूप से कहे गये हैं। नामादि से प्रज्ञप्त हैं। विस्तार से कथन किये गये हैं। उपमान आदि से और निगमन से पुष्ट किए गए हैं। आचार—आचारांग को ग्रहण-धारण करने वाला, उसके अनुसार क्रिया करने वाला, आचार की साक्षात् मूर्ति बन जाता है। वह भावों का ज्ञाता और विज्ञाता हो जाता है। इस प्रकार आचारांग सूत्र में चरण-करण की प्ररूपणा की गई है। यह आचाराङ्ग का स्वरूप है। विवेचन—नाम के अनुसार ही आचाराङ्ग में श्रमण की आचारविधि का वर्णन किया गया है। इसके दो श्रुतस्कन्ध हैं। दोनों ही श्रुतस्कंध अध्ययनों में और प्रत्येक अध्ययन उद्देशकों में अथवा चूलिकाओं में विभाजित हैं। आचरण को ही दूसरे शब्द में आचार कहा जाता है। अथवा पूर्वपुरुषों ने जिस ज्ञानादि की आसेवनविधि का आचरण किया, उसे आचार कहा गया है और इस प्रकार का प्रतिपादन करने वाले शास्त्र को आचाराङ्ग कहते हैं। आचाराङ्ग के विषय पांच आचार हैं, यथा (१) ज्ञानाचार—ज्ञानाचार के आठ भेद हैं—काल, विनय, बहुमान, उपधान, अनिह्नवण, व्यंजन, अर्थ और तदुभय। इन्हें संक्षेप में निम्न प्रकार से समझा जा सकता है (२) विनय अध्ययन करते समय ज्ञान और ज्ञानदाता गुरु के प्रति श्रद्धा-भक्ति रखना। (३) बहुमान ज्ञान और ज्ञानदाता के प्रति गहरी आस्था एवं बहुमान का भाव रखना। (४) उपधान आगमों में जिस सूत्र को पढ़ने के लिए जिस तप का विधान किया गया हो, अध्ययन करते समय उस तप का आचरण करना। तप के बिना अध्ययन फलप्रद नहीं होता। (५) अनिह्नवण—ज्ञान और ज्ञानदाता के नाम को नहीं छिपाना। (६) व्यञ्जन—यथाशक्ति सूत्र का शुद्ध उच्चारण करना। शुद्ध उच्चारण निर्जरा का और अशुद्ध उच्चारण अतिचार का हेतु होता है। (७) अर्थ—सूत्रों का प्रामाणिकता से अर्थ करना, स्वेच्छा से जोड़ना या घटाना नहीं। (८) तदुभय आगमों का अध्ययन और अध्यापन विधिपूर्वक निरतिचार रूप से करना तदुभय ज्ञानाचार कहलाता है। (२) दर्शनाचार—सम्यक्त्व को दृढ़ एवं निरतिचार रखना। हेय को त्यागने की और उपादेय को ग्रहण करने की रुचि का होना ही निश्चय सम्यक्त्व है तथा उस रुचि के बल से होने वाली धर्मतत्त्वनिष्ठा व्यवहार-सम्यक्त्व है। दर्शनाचार के भी आठ भेद-अंग बताए गए हैं (१) निःशंकित आत्मतत्त्व पर श्रद्धा रखना, अरिहंत भगवन्त के उपदेशों में, केवलिभाषित

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