Book Title: Agam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Author(s): Devvachak, Madhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 228
________________ श्रुतज्ञान] [१९३ आचार्य ने उत्तर दिया ज्ञाताधर्मकथा में ज्ञातों के नगरों, उद्यानों, चैत्यों, वनखण्डों व भगवान् के समवसरणों का तथा राजा, माता-पिता, धर्माचार्य, धर्मकथा, इहलोक और परलोक सम्बन्धी ऋद्धि विशेष, भोगों का परित्याग, दीक्षा, पर्याय, श्रुत का अध्ययन, उपधान-तप, संलेखना, भक्त-प्रत्याख्यान, पादपोपगमन, देवलोक-गमन, पुनः उत्तमकुल में जन्म, पुनः सम्यक्त्व की प्राप्ति, तत्पश्चात् अन्तक्रिया कर मोक्ष की उपलब्धि इत्यादि विषयों का वर्णन है। धर्मकथाङ्ग के दस वर्ग हैं और एक-एक धर्मकथा में पाँच-पाँच सौ आख्यायिकाएँ हैं। एक-एक आख्यायिका में पाँच-पाँच सौ उपाख्यायिकाएँ और एक-एक उपाख्यायिका में पाँच-पाँच सौ आख्यायिका-उपाख्यायिकाएँ हैं। इस प्रकार पूर्वापर कुल साढ़े तीन करोड़ कथानक हैं, ऐसा कथन किया है। ज्ञाताधर्मकथा में परिमित वाचना, संख्यात अनुयोगद्वार, संख्यात वेढ, संख्यात श्लोक, संख्यात नियुक्तियाँ, संख्यात संग्रहणियाँ और संख्यात प्रतिपत्तियाँ हैं। अङ्ग की अपेक्षा से ज्ञाताधर्मकथाङ्ग छठा अंग हैं। इसमें दो श्रुतस्कन्ध, उन्नीस अध्ययन, उन्नीस उद्देशनकाल, उन्नीस समुद्देशनकाल तथा संख्यात सहस्रपद हैं। संख्यात अक्षर, अनन्त गम, अनन्त पर्याय, परिमित त्रस और अनन्त स्थावर हैं। शाश्वत-कृत-निबद्ध-निकाचित जिन-प्रतिपादित भाव, कथन, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन से स्पष्ट किए गए हैं। प्रस्तुत अङ्ग का पाठक तदात्मरूप, ज्ञाता और विज्ञाता हो जाता है। इस प्रकार ज्ञाताधर्मकथा में चरण-करण की विशिष्ट प्ररूपणा की गई है। यही इसका स्वरूप है। विवेचन इस छठे अङ्गश्रुत का नाम ज्ञाता-धर्मकथा है। 'ज्ञाता' शब्द यहाँ उदाहरणों के लिए प्रयुक्त किया गया है। इसमें इतिहास, दृष्टान्त तथा उदाहरण, इन सभी का समावेश हो जाता है। इस अङ्ग में इतिहास, उदाहरण और धर्मकथाएँ दी गई हैं। इसलिए इसका नाम ज्ञाताधर्मकथा है। इसके पहले श्रुतस्कन्ध में ज्ञात (उदाहरण) और दूसरे श्रुतस्कन्ध में धर्मकथाएँ हैं। इतिहास प्रायः वास्तविक होते हैं किन्तु दृष्टान्त, उदाहरण और कथा-कहानियाँ वास्तविक भी हो सकती हैं और काल्पनिक भी। सम्यक्दृष्टि प्राणी के लिए ये सभी धर्मवृद्धि के कारण बन जाते हैं तथा मिथ्यादृष्टि के लिए पतन के कारण बनते हैं। ऐसा दृष्टिभेद के कारण होता है। सम्यक्दृष्टि अमृत को अमृत मानता ही है, वह विष को भी अपने ज्ञान से अमृत बना लेता है, किन्तु इसके विपरीत मिथ्यादृष्टि अमृत को विष और विष को अमृत समझ लेता है। ज्ञाताधर्मकथा में पहले श्रुतस्कन्ध में उन्नीस अध्ययन और दूसरे श्रुतस्कन्ध में दस वर्ग हैं। प्रत्येक वर्ग में अनेक-अनेक अध्ययन हैं। प्रत्येक अध्ययन में एक कथानक और अन्त में उससे मिलने वाली शिक्षाएँ बताई गई हैं। कथाओं में पात्रों के नगर, प्रासाद, चैत्य, समुद्र, उद्यान, स्वप्न, धर्मसाधना के प्रकार और संयम से विचलित होकर पुनः सम्भल जाना, अढ़ाई हजार वर्ष पूर्व के लोगों का जीवन, वे सुमार्ग से कुमार्ग में और कुमार्ग से सुमार्ग में कैसे लगे ? धर्म के आराधक किस प्रकार बने? या विराधक कैसे हो गये ? उनके अगले जन्म कहाँ और किस प्रकार होंगे? इन सभी

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