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[ नन्दीसूत्र
७०—वक्ता द्वारा छोड़े गए जिन भाषारूप पुद्गल - समूह को समश्रेणि में स्थित श्रोता सुनता है, उन्हें नियम से अन्य शब्द द्रव्यों से मिश्रित ही सुनता है । विश्रेणि में स्थित श्रोता शब्द को नियम से पराघात होने पर ही सुनता है।
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विवेचन—वक्ता काययोग से भाषावर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके, उन्हें वचनरूप में परिणत करके वचनयोग से छोड़ता है। प्रथम समय में गृहीत पुद्गल दूसरे समय में और दूसरे समय में गृहीत तीसरे समय में छोड़े जाते हैं ।
वक्ता द्वारा छोड़े गए शब्द उसकी सभी दिशाओं में विद्यमान श्रेणियों आकाश की प्रदेशपंक्तियों में अग्रसर होते हैं, क्योंकि श्रेणी के अनुसार ही उनकी गति होती है, विश्रेणि में गति नहीं होती ।
जब वक्ता बोलता है तो समश्रेणि गमन करते हुए उसके द्वारा मुक्त शब्द, उसी श्रेणि में पहले से विद्यमान भाषाद्रव्यों को अपने रूप में शब्द रूप में परिणत कर लेते हैं । इस प्रकार वे दोनों प्रकार के शब्द मिश्रित हो जाते हैं । उन मिश्रित शब्दों को ही समश्रेणी में स्थित श्रोता ग्रहण करता है। कोरे वक्ता द्वारा छोड़े गये शब्द - परिणत पुद्गलों को ही कोई भी श्रोता ग्रहण नहीं करता ।
यह समश्रेणि में स्थित श्रोता की बात हुई। मगर विश्रेणि में अर्थात् वक्ता द्वारा मुक्त शब्द द्रव्य जिस श्रेणि में गमन कर रहे हों, उससे भिन्न श्रेणि में स्थित श्रोता किस प्रकार के शब्दों को सुनता है ? क्योंकि वक्ता द्वारा निसृष्ट शब्द विश्रेणि में जा नहीं सकते।
इस शंका का समाधान गाथा के उत्तरार्ध में किया गया है। वह यह है कि विश्रेणि में स्थित श्रोता, न तो वक्ता द्वारा निसृष्ट शब्दों को सुनता है, न मिश्रित शब्दों को ही । वह वासित शब्दों को ही सुनता है। इसका तात्पर्य यह है कि वक्ता द्वारा निसृष्ट शब्द, दूसरे भाषाद्रव्यों को शब्दरूप में वासित करते हैं, और वे वासित शब्द, विभिन्न समश्रेणियों में जाकर श्रोता को सुनाई देते हैं । ईहा अपोह वीमंसा, मग्गणा य गवेसणा । सन्ना - सई - मई - पन्ना, सव्वं आभिणिबोहियं ॥
७१.
सेतं आभिणिबोहियनाणपरोक्खं, से त्तं मइनाणं ॥
७१ – ईहा सदर्थपर्यालोचनरूप, अपोह - निश्चयात्मक ज्ञान, विमर्श, मार्गणा— अन्वयधर्मविधान रूप और गवेषणा — व्यतिरेकधर्मनिराकरणरूप तथा संज्ञा, स्मृति, मति और प्रज्ञा, ये सब आभिनिबोधिक-मतिज्ञान के पर्यायवाची नाम हैं। यह आभिनिबोधिक ज्ञान-परोक्ष का विवरण पूर्ण हुआ। इस प्रकार मतिज्ञान का विवरण सम्पूर्ण हुआ ।
विवेचन-इन्द्रियों की उत्कृष्ट शक्ति —— श्रोत्रेन्द्रिय की उत्कृष्ट शक्ति है बारह योजन से आए हुए शब्द को सुन लेना । नौ योजन से आए हुए गन्ध, रस और स्पर्श के पुद्गलों को ग्रहण करने की उत्कृष्ट शक्ति घ्राण, रसना एवं स्पर्शन इन्द्रियों में होती है । चक्षुरिन्द्रिय की शक्ति रूप को ग्रहण करने की लाख योजन से कुछ अधिक है । यह कथन अभास्वर द्रव्य की अपेक्षा से है किन्तु भास्वर