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[ नन्दीसूत्र
से रहित विद्वद्-जनों से सम्मानित, संयम - विधि-उत्सर्ग और अपवाद मार्ग के परिज्ञाता थे, उन (३०) आचार्य भूतदिन्न को वन्दन करता हूँ ।
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४३. वर- कणग-तविय- चंपग-विमउल - वर-कमल- गब्भसरिवन्ने । भविय - जण - हियय-दइए, दयागुणविसार धीरे ॥ ४४. अड्ढभरहप्पहाणे बहुविहसज्झाय - सुमुणिय - पहाणे अणुओगिय-वरवस नाइलकुल - वंसनंदिकरे ॥ वंदेऽहं भूयदिन्नमायरिए । भव-भय- वुच्छेयकरे, सीसे नागज्जुणरिसीणं ॥
४५. जगभूयहियपगब्मे,
४३-४४-४५– जिनके शरीर की कान्ति तपे हुए स्वर्ण के समान देदीप्यमान थी अथवा स्वर्णिम वर्ण वाले चम्पक पुष्प के समान थी या खिले हुए उत्तम जातीय कमल के गर्भ-पराग के तुल्य गौर वर्ण युक्त थी, जो भव्यों के हृदय - वल्लभ थे, जन-मानस में करुणा भाव उत्पन्न करने में तथा करुणा करने में निपुण थे, धैर्यगुण सम्पन्न थे, दक्षिणार्द्ध भरत में युग-प्रधान, बहुविध स्वाध्याय के परिज्ञाता, सुयोग्य संयमी पुरुषों को यथा - योग्य स्वाध्याय, ध्यान, वैयावृत्य आदि शुभ क्रियाओं में नियुक्तिकर्त्ता तथा नागेन्द्र कुल की परम्परा की अभिवृद्धि करने वाले थे, सभी प्राणियों को उपदेश देने में निपुण और भव-भीति के विनाशक थे, उन आचार्य श्री नागार्जुन ऋषि के शिष्य भूतदिन को मैं वन्दन करता हूँ।
विवेचन—- श्री देववाचक, आचार्य भूतदिन के परम श्रद्धालु थे । इसलिए आचार्य के शरीर का, गुणों का, लोकप्रियता का, गुरु का कुल का, वंश का और यश कीर्ति का परिचय उपर्युक्त तीन गाथाओं में दिया है। उनके विशिष्ट गुणों का दिग्दर्शन कराना ही वास्तविक रूप में स्तुति कहलाती है ।
४६. सुमुणिय- णिच्चाणिच्चं, सुमुणिय-सुत्तत्थधारयं वंदे । सब्भावुब्भावणया, तत्थं लोहिच्चणामाणं ॥
४६—नित्यानित्य रूप से द्रव्यों को समीचीन रूप से जानने वाले, सम्यक् प्रकार से समझे हुए सूत्र और अर्थ के धारक तथा सर्वज्ञ - प्ररूपित सद्भावों का यथाविधि प्रतिपादन करने वाले (३१) श्री लोहित्याचार्य को नमस्कार करता हूँ ।
४७. अत्थ- महत्थक्खाणिं, सुसमणवक्खाण-कहण- निव्वाणि I पयईए महुरवाणिं पयओ पणमामि दूसगणिं ॥
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४७ शास्त्रों के अर्थ और महार्थ की खान के सदृश अर्थात् भाषा, विभाषा, वार्तिकादि से अनुयोग के व्याख्याकार, सुसाधुओं को आगमों की वाचना देते समय शिष्यों द्वारा पूछे हुए प्रश्नों का उत्तर देने में संतोष व समाधि का अनुभव करने वाले, प्रकृति से मधुर, ऐसे आचार्य (३२) श्री