Book Title: Agam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Author(s): Devvachak, Madhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 137
________________ १०२] [ नन्दीसूत्र चढ़ गई। उसने कहा—" यह सब बातें तुम किस आधार पर कह रहे हो?" विनीत शिष्य ने उत्तर दिया " भाई ! कुछ आगे चलने पर तुम्हें सब कुछ स्पष्ट हो जायेगा ।" यह सुनकर प्रश्नकर्त्ता शिष्य चुप हो गया और दोनों चलते-चलते कुछ समय पश्चात् अपने गन्तव्य ग्राम तक पहुंच गये। उन्होंने देखा कि ग्राम के बाहर एक विशाल सरोवर के तीर पर किसी अतिसम्पन्न व्यक्ति का पड़ाव पड़ा हुआ है। तम्बुओं के एक ओर बाँये नेत्र से कानी एक हथिनी भी बँधी हुई है। ठीक उसी समय दोनों शिष्यों ने यह भी देखा कि एक दासी जैसी लगने वाली स्त्री एक सुन्दर तम्बू से निकली और वहीं खड़े हुए एक प्रभावशाली व्यक्ति से बोली - "मन्त्रिवर! महाराज को जाकर बधाई दीजिएराजकुमार का जन्म हुआ है।" यह सब देख सुनकर जिस शिष्य ने ये सारी बातें पहले ही बता दीं थी, वह बोला- “देखो वाम नेत्र से कानी हथिनी खड़ी है और दासी के वचन सुनकर हमें यह भी ज्ञात हो गया है कि उस पर गर्भवती रानी सवार थी जिसे अभी-अभी पुत्रलाभ हुआ है।" अविनीत शिष्य ने बेदिली से उत्तर दिया- "हाँ मैं समझ गया, तुम्हारा ज्ञान सही है, अन्यथा नहीं ।" तत्पश्चात् दोनों सरोवर में हाथ पैर धोकर एक वट वृक्ष के नीचे विश्राम हेतु बैठ गये । कुछ समय पश्चात् ही एक वृद्धा स्त्री अपने मस्तक पर पानी का घड़ा लिए हुए उधर से निकली । वृद्धा की नजर उन दोनों पर पड़ी। उसने सोचा- " ये दोनों विद्वान् मालूम होते हैं, क्यों न इनसे पूछूं कि मेरा विदेश गया हुआ पुत्र कब लौटकर आयेगा?" यह विचार कर वह शिष्यों के समीप गई और प्रश्न करने लगी। किन्तु उसी समय उसका घड़ा सिर से गिरा और फूट गया । सारा पानी मिट्टी में समा गया। यह देखकर अविनीत शिष्य झट बोल पड़ा " बुढ़िया ! तेरा पुत्र घड़े के समान ही मृत्यु को प्राप्त हो गया है।" वृद्धा सन्न रह गई किन्तु उसी समय दूसरे ज्ञानी शिष्य ने कहा- " मित्र, ऐसा मत कहो । इसका पुत्र तो घर आ चुका है।" उसके बाद उसने वृद्धा को संबोधित करते हुए कहा—“ माता ! तुम शीघ्र घर जाओ, तुम्हारा पुत्र तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है।" वृद्धा की जान में जान आई। उसने अपने घर की ओर कदम बढ़ा दिये। घर पहुँचते ही देखा कि लड़का धूलि धूसरित पैरों सहित ही उसकी प्रतीक्षा में बैठा है । हर्ष-विह्वल होकर उसने पुत्र को अपने कलेजे से लगा दिया और उसी समय नैमित्तिक शिष्य के विषय में बताकर पुत्र सहित उस वट वृक्ष के नीचे आई । शिष्य को उसने यथायोग्य दक्षिणा के साथ अनेक आशीर्वाद दिये । इधर अविनीत शिष्य ने जब यह देखा कि मेरी बातें मिथ्या सिद्ध होती हैं और मेरे साथी की सत्य, तो वह दुःख और क्रोध से भरकर सोचने लगा- " यह सब गुरुजी के पक्षपात के कारण ही हो रहा है। उन्होंने मुझे ठीक तरह से नहीं पढ़ाया।" ऐसे ही विचारों के साथ वह गुरु का कार्य सम्पन्न होने के पश्चात् वापिस लौटा। लौटने पर विनीत शिष्य आनन्दाश्रु बहाता हुआ गद्गद भाव से गुरु के चरणों पर झुक गया किन्तु अविनीत ठूंठ की तरह खड़ा रहा। यह देखकर गुरु ने प्रश्नसूचक दृष्टि से उसकी ओर देखा । तुरन्त ही वह बोला- “ आपने मुझे सम्यक् रूप से नहीं पढ़ाया है

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