Book Title: Agam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Author(s): Devvachak, Madhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 181
________________ १४६] [नन्दीसूत्र ___ एवामेव पक्खिप्पमाणेहि-पक्खिप्पमाणेहिं अणन्तेहिं पुग्गलेहिं जाहे तं वंजणं पूरिअं होइ, ताहे 'हं' ति करेइ, तो चेव णं जाइण के वेस सदाइ ? तओ ईंहं पविसइ, तओ जाणंइ अमुगे एस सद्दाइ, तओ अवायं पविसइ, तओ से उवगयं हवइ, तओ णं धारणं पविसइ, तओ णं धारेइ संखिज्जं वा कालं, असंखिजं वा कालं। ६३–शिष्य के द्वारा प्रश्न किया गया—'मल्लक के दृष्टान्त से व्यंजनावग्रह का स्वरूप किस प्रकार है ?' गुरु ने उत्तर दिया जिस प्रकार कोई व्यक्ति आपाकशीर्ष अर्थात् कुम्हार के बर्तन पकाने के स्थान को, जिसे "आवा" कहते हैं, उससे एक सिकोरा अर्थात् प्याला लेकर उसमें पानी की एक बूंद डाले, उसके नष्ट हो जाने पर दूसरी, फिर तीसरी, इसी प्रकार कई बूंदें नष्ट हो जाने पर भी निरन्तर डालता रहे तो पानी की कोई बूंद ऐसी होगी जो उस प्याले को गीला करेगी। तत्पश्चात् कोई बूंद उसमें ठहरेगी और किसी बूँद से प्याला भर जायेगा और भरने पर किसी बूंद से पानी बाहर गिरने लगेगा। इसी प्रकार वह व्यंजन अनन्त पुद्गलों से क्रमशः पूरित होता है अर्थात् जब शब्द के पुद्गलद्रव्य श्रोत्र में जाकर परिणत हो जाते हैं, तब वह पुरुष हुंकार करता है, किन्तु यह नहीं जानता कि यह किस व्यक्ति का शब्द है ? तत्पश्चात् वह ईहा में प्रवेश करता है और तब जानता है कि यह अमुक व्यक्ति का शब्द है। तत्पश्चात् अवाय में प्रवेश करता है, तब वह उपगत होता है अर्थात् शब्द का ज्ञान हो जाता है। इसके बाद धारणा में प्रवेश करता है और संख्यात अथवा असंख्यातकाल पर्यंत धारण किये रहता है। विवेचन सूत्रकार ने उक्त विषय को स्पष्ट करने के लिये तथा प्रतिबोधक के दृष्टान्त की पुष्टि के लिए एक और व्यावहारिक उदाहरण देकर समझाया है किसी व्यक्ति ने कुम्हार के आवे से मिट्टी का पका हुए एक कोरा प्याला लिया। उस प्याले में उसने जल की एक बूंद डाली। वह तुरन्त उस प्याले में समा गई। व्यक्ति ने तब दूसरी, तीसरी और इसी प्रकार अनेक बूंदें डालीं किन्तु वे सभी प्याले में समाती चली गईं और प्याला सूं-सूं शब्द करता रहा। किन्तु निरन्तर बूंदें डालते जाने से प्याला गीला हो गया और उसमें गिरने वाली बूंदें ठहरने लगीं। धीरे-धीरे प्याला बूंदों के पानी से भर गया और उसके बाद जल की जो बूंदें उसमें गिरी वे बाहर निकलने लगीं। इस उदाहरण से व्यंजनावग्रह का रहस्य समझ में आ सकता है। यथा एक सुषुप्त व्यक्ति की श्रोत्रेन्द्रिय में क्षयोपशम की मंदता या अनभ्यस्त दशा में अथवा अनुपयुक्त अवस्था में समय-समय में जब शब्द-पुद्गल टकराते रहते हैं, तब असंख्यात समयों में उसे कुछ अव्यक्त ज्ञान होता है। वही व्यंजनावग्रह कहलाता है। तात्पर्य यह है कि जब श्रोत्रेन्द्रिय शब्द-पुद्गलों से परिव्याप्त हो जाती है, तभी वह सोया हुआ व्यक्ति 'हुँ' शब्द का उच्चारण करता है। उस समय सोये हुए व्यक्ति को यह ज्ञात नहीं होता कि यह शब्द क्या है? किसका है? उस समय वह जाति-स्वरूप, द्रव्य-गुण इत्यादि विशेष कल्पना से रहित सामान्य मात्र को ही ग्रहण कर

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