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[नन्दीसूत्र पलिओवमस्स असंखिज्जइभागं अतीयमणागयं वा कालं जाणइ पासइ, तं चेव विउलमई अब्भहियतरागं विसुद्धतरागं, वितिमिरतरागं जाणइ पासइ।
भावओ णं-उज्जुमई अणंते भावे जाणइ पासइ, सव्वभावाणं अणंतभागं जाणइ पासइ, तं चेव विउलमई विसुद्धतरागं वितिमिरतरागं जाणइ पासइ।
३७मनःपर्यवज्ञान दो प्रकार से उत्पन्न होता है, यथा—(१) ऋजुमति (२) विपुलमति।
दो प्रकार का होता हुआ भी यह विषय-विभाग की अपेक्षा चार प्रकार से है, यथा— (१) द्रव्य से (२) क्षेत्र से (३) काल से (४) भाव से।
(१) द्रव्य से ऋजुमति अनन्त अनन्तप्रदेशिक स्कन्धों को विशेष तथा सामान्य रूप से जानता व देखता है, और विपुलमति उन्हीं स्कन्धों को कुछ अधिक विपुल, विशुद्ध और निर्मल रूप से जानता व देखता है।
(२) क्षेत्र से ऋजुमति जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र क्षेत्र को तथा उत्कर्ष से नीचे इस रत्नप्रभा पृथ्वी के उपरितन-अधस्तन क्षुल्लक प्रतर को और ऊँचे ज्योतिषचक्र के उपरितल पर्यंत और तिरछे लोक में मनुष्य क्षेत्र के अन्दर अढ़ाई द्वीप समुद्र पर्यंत, पन्द्रह कर्मभूमियों, तीस अकर्मभूमियों और छप्पन अन्तरद्वीपों में वर्तमान संज्ञिपंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों के मनोगत भावों को जानता व देखता है। और उन्हीं भावों को विपुलमति अढ़ाई अंगुल अधिक विपुल, विशुद्ध और निर्मलतर तिमिररहित क्षेत्र को जानता व देखता है।
(३) काल से ऋजुमति जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग को और उत्कृष्ट भी पल्योपम के असंख्यातवें भाग भूत और भविष्यत् काल को जानता व देखता है। उसी काल को विपुलमति उससे कुछ अधिक, विपुल, विशुद्ध और वितिमिर अर्थात् सुस्पष्ट जानता व देखता है।
(४) भाव से ऋजुमति अनन्त भावों को जानता व देखता है, परन्तु सब भावों के अनन्तवें भाग को ही जानता व देखता है। उन्हीं भावों को विपुलमति कुछ अधिक, विपुल, विशुद्ध और निर्मल रूप से जानता व देखता है।
विवेचन मन:पर्यवज्ञान के दो भेद (१) ऋजुमति—जो अपने विषय का सामान्य रूप से प्रत्यक्ष करता है।
(२) विपुलमति—वह कहलाता है जो अपने विषय को विशेष रूप से प्रत्यक्ष करता है।
अब मनःपर्यवज्ञान के विषय का द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा संक्षेप में वर्णन किया जा रहा है।
(१) द्रव्यतः मनःपर्यवज्ञानी मनोवर्गणा के मनरूप में परिणत अनन्त प्रदेशी स्कन्धों की पर्यायों को स्पष्ट रूप से देखता व जानता है।
जैनागम में कहीं भी मनःपर्याय दर्शन का विधान नहीं है, फिर भी मूल पाठ में 'जाणइ' के साथ 'पासइ' अर्थात् देखता है, ऐसा कहा जाता है। इसका तात्पर्य क्या है? इस संबंध में अनेक