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[नदीसूत्र असंयत—जो चतुर्थ गुणस्थानवर्ती हों, जिनके अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से देशविरति न हो उन्हें अविरत या असंयत सम्यग्दृष्टि कहते हैं।
संयतासंयत संयतासंयत सम्यग्दृष्टि मनुष्य श्रावक होते हैं। श्रावकों को हिंसा आदि पांच आश्रवों का अंश रूप से त्याग होता है, सम्पूर्ण रूप से नहीं।
संयतादि को क्रमशः विरत, अविरत और विरताविरत तथा पच्चक्खाणी, अपच्चक्खाणी एवं पच्चक्खाणापच्चक्खाणी भी कहते हैं।
अभिप्राय यह है कि संयत या सर्वविरत मनुष्यों को ही मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न हो सकता है, असंयत और संयतासंयत सम्यक्दृष्टि मनुष्य इस ज्ञान के पात्र नहीं हैं।
३५-जइ संजय-सम्मद्दिट्ठि-पज्जत्तग-संखेज्जवासाउय-कम्मभूमग-गब्भवक्कंतियमणुस्साणं किं पमत्तसंजय-सम्मद्दिट्ठि-पजत्तग-संखेज वासाउयकम्मभूमग-गब्भवक्कंतियमणुस्साणं, किं अप्पमत्तसंजय-सम्मद्दिट्ठि-पजत्तग-संखेन्जवासाउय-कम्मभूमग-गब्भवक्कंतियमणुस्साणं ?
गोयमा! अप्पमत्तसंजय-सम्मद्दिट्ठि-पज्जत्तग-संखेज्जवासाउय-कम्मभूमग-गब्भव- । क्कंतिय-मणुस्साणं, णो पमत्तसंजय-सम्मद्दिट्ठि-पन्जत्तग-संखेजवासाउय-कम्मभूमगगब्भवक्कंतिय-मणुस्साणं।
३५–प्रश्न यदि संयत सम्यग्दृष्टि पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को उत्पन्न होता है तो क्या प्रमत्तसंयत सम्यग्दृष्टि पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को होता है या अप्रमत्तसंयत सम्यग्दृष्टि पर्याप्त संख्यातवर्ष-आयुष्यक कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को ?
उत्तर—गौतम! अप्रमत्तसंयत सम्यग्दृष्टि पर्याप्तक संख्यातवर्ष की आयु वाले कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को होता है, प्रमत्त को नहीं।
विवेचन इस सूत्र में गौतम स्वामी ने प्रश्न किया है कि भगवन्! अगर संयत को ही मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न होता है तो संयत भी प्रमत्त एवं अप्रमत्त के भेद से दो प्रकार के होते हैं। इनमें से कौन इस ज्ञान का अधिकारी है ? भगवान् ने उत्तर दिया अप्रमत्तसंयत ही इस ज्ञान का अधिकारी
अप्रमत्तसंयत—जो सातवें आदि गुणस्थानों में पहुँचा हुआ हो, जो निद्रा आदि प्रमादों से अतीत हो चुका हो, जिसके परिणाम संयम में वृद्धिंगत हो रहे हों, ऐसे मुनि को अप्रमत्तसंयत कहते
हैं।
प्रमत्तसंयत—जो संज्वलन कषाय, निद्रा, विकथा आदि प्रमाद में प्रवर्तते हैं, उन्हें प्रमत्तसंयत कहते हैं। ऐसे मुनि मन:पर्यवज्ञान के अधिकारी नहीं होते।
३६-जइ अप्पमत्तसंजय-सम्मद्दिट्ठि-पज्जत्तग-संखेन्जवासाउय-कम्मभूमग-गब्भ