________________
ज्ञान के पांच प्रकार]
[५५ (५) अवधिज्ञान मिथ्यात्व के उदय से विभङ्गज्ञान के रूप में परिणत हो सकता है, जबकि मनःपर्यवज्ञान के होते हुए मिथ्यात्व का उदय होता ही नहीं। अर्थात् इस ज्ञान का विपक्षी कोई अज्ञान नहीं है।
(६) अवधिज्ञान आगामी भव में भी साथ जा सकता है जबकि मनःपर्यवज्ञान इस भव तक ही रहता है, जैसे संयम और तप।
मनःपर्यवज्ञान का उपसंहार ३८. मणपज्जवनाणं पुण, जणमण-परिचिंतियत्थपागडणं ।
माणुसखित्तनिबद्धं, गुणपच्चइअं चरित्तवओ ॥ से तं मणपज्जवनाणं।
३८-मन:पर्यवज्ञान मनुष्यक्षेत्र में रहे हुए प्राणियों के मन द्वारा परिचिन्तित अर्थ को प्रकट करने वाला है। शान्ति, संयम आदि गण इस ज्ञान की उत्पत्ति के कारण हैं और यह चारित्रसम्पन्न अप्रमत्तसंयम को ही होता है।
विवेचन उक्त गाथा में 'जन' शब्द का प्रयोग हुआ है। इसकी व्युत्पत्ति है."जायते इति जनः"। इसके अनुसार जन का अर्थ केवल मनुष्य ही नहीं, अपितु समनस्क भी है। मनुष्यलोक दो समुद्र और अढाई द्वीप तक ही सीमित है। उस मर्यादित क्षेत्र में जो मनुष्य, तिर्यंच, संज्ञी पंचेन्द्रिय तथा देव रहते हैं उनके मन के पर्यायों को मनःपर्यवज्ञानी जान सकते हैं।
यहां 'गुणपच्चइयं' तथा 'चरित्तवओ' ये दो पद महत्त्वपूर्ण हैं। अवधिज्ञान जैसे भवप्रत्ययिक और गुणप्रत्ययिक, इस तरह दो प्रकार का है, वैसे मन:पर्याय नहीं। वह केवल गुणप्रत्ययिक ही है। अवधिज्ञान तो अविरत, श्रावक और प्रमत्तसंयत को भी हो जाता है किन्तु मन:पर्यायज्ञान केवल चारित्रवान् साधक को ही होता है।
केवलज्ञान ३९–से किं तं केवलनाणं ? केवलनाणं दुविहं पण्णत्तं, तं जहा—भवत्थकेवलनाणं च सिद्धकेवलनाणं च।
से किं तं भवत्थकेवलनाणं ? भवत्थकेवलनाणं दुविहं पण्णत्तं, तं जहा सजोगिभवत्थकेवलनाणं च अजोगिभवत्थकेवलनाणं च।
से किं तं सजोगिभवत्थकेवलणाणं ? सजोगिभवत्थकेवलणाणं दुविहं पण्णत्तं तं जहा—पढमसमय-सजोगिभवत्थ-केवलणाणं च, अपढमसमय-सजोगिभवस्थ-केवलणाणं च। अहवा चरमसमय-सजोगिभवत्थ केवलणाणं च, अचरमसमय-सजोगिभवत्थ-केवलणाणं च। से त्तं सजोगिभवत्थ-केवलणाणं।
से किं तं अजोगिभवत्थकेवलणाणं ? अजोगिभवत्थकेवलणाणं दुविहं पण्णत्तं, तं